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सुदशिमी टीका भ ५ सू०५
संयताचारपाल्कस्यस्थितिनिरूपणम्
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पुष्करपत्रमिच-मपत्रमिन ' निरुपलेवे ' निरुपलेप' -भोगगृडिलेपापेक्षा, तथ ' सोमायाए ' सौम्यतया = सौम्य परिणामेन 'चदो इन' चन्द्र इव, तथा - ' मूरोव्य ' सूर व ' दिसतेए, दीप्ततेजाः = दीप्त तेजो यस्य स तथा - गिरिपरे मदरे ' गिरिन मन्दरः ' जह' यथा इन सकलपर्वतश्रेष्ठमेत 'अच अचळ = परीपादौ सत्यपि निश्चलः, तथा-' अक्खोभे ' अक्षोभः = क्षोभवर्जितः - निस्तरङ्ग, ' सागरोध ' सागर इन ' थिमिए' स्तिमितः = कपायतरद्गनर्जिनः, तथा - 'पुढची निव' पृथिवीन 'सच्चफामविसहे ' सर्वस्पर्शविपदः - शुभाशुभस्पर्शेषु समचित्त इत्यर्थ?' तथा - ' तामाचि य ' तपसाऽपि च हेतुभूतेन ' भासरासिठनैन ' जाततेर ' भस्मराशिच्छन्न इव जाततेजा, यथा-भस्माच्छन्नो नहिरुपरि शुद्ध वर्ण की तरह वह रागादिकरूप क्षार से रहित होने के कारण अपने निजरूप से सम्पन्न हो जाता है । (पुक्खरपत्त व निम्वलेवे ) कमल पत्र की तरह भोगों में गृद्धिरूप लेप से वह रहित बन जाता है । (सोमायाए चदोsa ) सौम्यता से वह चद्र की तरह (सूरोव्वदित्ततेए ) सूर्य की तरह वह दीस तेज चमकने वाला हो जाता है। तथा (गिरिवरे मदरे जह अचले ) गिरि वर सुमेरु पर्वत की तरह वह परिपह आदि के आने पर अचल सुस्थिर बना रहता है । और (अम्खो भो सागरोव्व ) निस्तरग सागर की तरह अक्षोभ क्षोभ से रहित बन जाता है (विमिए) स्तिमित-कपायरूपतरगो से रहित पन जाता है। तथा (पुढचीविय सव्वकासविसहे ) जिस प्रकार पृथ्वी समस्त प्रकार के स्पर्शो को सहन करती है उसी प्रकार वह भी शुभ और अशुभ स्पर्शो में समचित्त हो जाता है । ( तवसा वि य भासरासिच्छन्नेव
તે રાગાદિક રૂપ ક્ષારચી રહિત હાવાને કારણે પેાતાના નિřરૂપથી સપન્ન થઈ लय छे' पु+सरपत्तत्र निरुपलेवे " उभाण पत्र प्रेम पालीथी अलिप्त रहे छे तेभ ते लोगोथी मक्षिप्त यह नये " सोमायाए चट्टो इत्र " सौभ्यताभा ते यन्दना ?वे! “सूरोव्य दित्ततेए " सूर्यनी प्रेम ते हीस ते-तेनस्वी थ જાય છે તથા ' गिरिवरे मदरे जह अचले " शिविर शुभेरुनी प्रेम ते परीषडु हिनडे तो पशु अयस, सुस्थिर रहे छे भने “ अक्सोभो सागरोव्व " तर गइयी सागरना वो ते मोल झोल रहित मनी लय हे " यिमिए” મ્નિમિત–ષાયરૂપ તરગાથી રહિત બની જાય છે તથા " पुढवीविय सन्त्र फासविस हे " प्रेम पृथ्वी अधा अझरना भ्यशने सहन શુભ અને અશુભ સ્પર્ધામા સમભાવવાળા થઇ જાય છે
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तसा विय भास
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