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सुदोशनी टीका अ० ५ सू० ४ कल्पनीयमशनादिनिरूपणम् प्रत्युपेक्षणम् चक्षुपा निरीक्षणमित्यर्थ , मस्फोटनम्-यतनापूर्वकमास्फालनम् , आभ्या सहिता या प्रमार्जना तस्या कत्ताया सत्याम् 'सयय' सतत 'अहो य रामओ य' अनि च रात्री च, 'भायणभडोवहि अगरण' भाजनभाण्डोप युपकरणम् , 'अप्पमत्तेण ' अममतेन-ममादयनितेन सयतेन 'निविष्वपियव्य' निक्षेप्तव्य-यतनया स्थापयितव्य च, 'गिडियच च यतनया ग्रहीतन्य च 'होइ' भवति । एपाचतुर्थसमित्याराधना विज्ञेया ॥ सू० ४ ॥ णाए) प्रतिलेग्वनाचक्षु द्वारा अच्छी तरह अवलोकन क्रिया और प्रस्फो. टन-यतना पूर्वक अटकारना रूप क्रिरा तथा प्रमार्जना कर लेने पर (अहो य राओ य) दिन में तथा रात्रि मे जन कभी रखने और लेने काम पडे तो इन (भायणभडोवहि उवगरण) माजन, भाड और वस्त्रादि स्प उपधि को (अप्पमत्तेण) अप्रमत्त होकर साधु को (सयय) नित्य (निस्खियच्य) यतनासे धरना चाहिये और (गिण्डियन्य च होइ) यतना से उठाना चाहिये ।
भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने कैसा आहार मुनि को लेना चाहिये और क्या २ सामग्री अपने पास रसना चाहिये-यह सर प्रकट किया है। आचोराग के द्वितीय श्रुतम्कर में जो पिण्डैपणा नामका प्रथम अध्ययन है उसमे ग्यारह उद्देशों मे आरके जो दोप प्रतिपादित किये गये हैं उन दोषो से जो आहार वर्जित हो, क्रयण आदि की कृत आदि रूप नौकोटियों से जो शुद्ध हो, उद्गम, उत्पादना और एपणा से जो शुद्ध हो, न्यपगत आदि विशेपणो वाला हो, प्रासुक हो, सयोजनादोप पप्फोडणपमज्जणाए" प्रतिवेपना - भाग 43 साग रीते सपन भने प्रन्टन-यतनापू टा२१६३५ दिया तथा प्रभावन यो पछी “अहोय राओय "
हिरामा ५४ वा भूवानी १३२ ५3 त्यारे ते " भायणभडोरहिवगरण " मन मार सने पाहि३५ ७५विन “अप्प मत्तण " प्रमत्त ने साधु " सयय " सह " निस्सियव्य " यतना ५४ ४॥ न मने " गियिव्य च होइ" यतनापू' हावा तसे
ભાવાર્થ-આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે કે આહાર મુનિએ લેવો જોઈએ અને કયી નથી સામગ્રી પિતાની પાસે રાખવી જોઈએ તે બધુ બતાવ્યું છે આચારાંગના બીજા વૃતક ધમાં જે પિકૈવણુ નામનું પહેલું અધ્યયન છે તેના
અગિયાર ઉદ્દેશમાં આહારના જે દેનુ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે તે દેથી જે આહાર હિત હોય, કયણ આદિના કૃત આદિરૂપ નવ પ્રકારે જે શુદ્ધ હેય, ઉગમ, ઉત્પાતના અને એવણથી જે શુદ્ધ હોય, વ્યપગત આદિ વિશેષણે વાળો હોય, પ્રાસુડ હાય, સજના દેષ વિનાને હોય, અગાર