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प्रन्नयाकरणसूत्रे मान्यैः, एतादृशे निणपरिंदै हिं' जिनवरेन्द्र निना:अधिगानमनः पर्ययज्ञानधराश्चास्थजिनाः, तेषु परा' श्रेष्ठाः केवलिनस्तेपामिन्द्राम्तीर्थकर नाम कर्मोदयवर्तिवायेत ते 'एस' पा-पुष्पफलकन्दमूगठिमधान्यरूपा 'जोणी' योनिरुत्पत्तिस्थानम् , ' जणाण ' जगताम् = प्राणिना 'विटा' टष्टा केवलज्ञा नेन, तस्मात्-कारणत्तेपां माणिना 'न कप्पइन पते 'जोगीममुन्छियोति' योनिसमुन्द इति = योनिध्वस पर्नुमिति, 'हि' गत'-' तेण' न हेतुना एतानि पुष्पफलादि सधान्यानि ' ममणसीहा' श्रमणमिहा श्रमणेपु सिंहाः मुनिश्रेप्टाः ‘पज्जति' वर्जयन्ति-न सघयन्ति ।। म्० २ ॥ लोयमहिएहि ) तीनो लोकों में मान्य ऐसे (जिणवरेरि जिनपरेन्द्रोंनेअवधिजानी और मन. पर्ययज्ञानीरूप उभस्थजिनों में श्रेष्ट जो केवली भगवान है, उनके मी तीर्थकर नामकर्म के उदय से युक्त होने के कारण जो इन्द्र बने हुए है ऐसे जिनवरेन्द्रों ने (म) ये पुष्प, फल, कन्द, मुल, आदि सर्वधान्य (जणाण जोणीदिद्वा) जीयो की उत्पत्तिस्थान होने से योनि रूप देखे है । इसलिये सकल सचमी जन को (न कप्पडजोणी समुच्छि दोत्ति ) जीवो की योनिरूप पुष्पफलादिको का ध्वस करना फरिपत नहीं है । (तेण हि ) इसलिये ये पुष्पफलादि समस्त धान्य (समणसिंहा) मुनिसिहो के लिये ( वज्जेति ) वर्जनीय ह अत इसी कारण वे इनकी सघटना नहीं करते है।
भावर्थ-इस परिग्रहविरमणरूप अन्तिम सबरद्वार मे सूत्रकार ने सकल सयमी अपरिग्रही श्रमण के लिये यह कहा है कि वह यदि देहिं" नरेन्द्रीय-विज्ञानी मने भान पवज्ञानी३५ सय लिनामा છે. જે કવલી ભગવાન છે, તેમના પણ તીઈ કર નામકર્મના ઉદયથી યુક્ત जापान २0 देसी चन्द्र भन्या छ मेवा जिनपरेन्द्रीय "एस" ते युध्य, ३५, ६, भूक माहिम धान्यने “ जणाण जोणी दिवा" योनु उत्पात स्थान लापाथी योनि३ ज्या 2 ते हो मत सयभी ने “ न कप्पइ जोणीसमुन्छिदोत्ति' यानी योनी ३५ ५०५, ४१ / माहिना वस ७२वी उपती नथी " तेण हि" ते ४ो पुष्प, ३१ मा समस्त धान्य “समण सिहा” भिड समान भुनियान भाट “बजे ति" त्या पान
ખ્ય બતાવ્યા છે, તે તે જ કારણે તેઓ તેમને ગ્રહણ કરતા નથી | ભાવાર્થ—આ પરિગ્રહ વિરમણરૂપ અતિમ અવતદ્વારમાં સૂનકારે સકલ સયમી અપરિગ્રહી સાધુને માટે તે બતાવ્યું છે કે જે તે પિતાના મૂળગુ