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प्रध्याकरणसूत्रे जणमणुण्णाओ' सजिनानुगतः । एपम्-जनेन प्रकारेण 'चय : चतुर्य 'स परदार ' सवरदार ' सपरद्वार ' फासिय' स्पृष्ट ' पालिय' पालित 'सोडिय' गोधित 'तोरिय' तीरित 'किटिय' कीर्तितम् , ' सम्म' सम्यरु 'आराहिय' आराधितम् आणाए ' आज्ञया ' अनुपालिय' अनुपालित 'भाइ' भवति । एवम् अनेन प्रकारेण 'नायमुणिगा' ज्ञानमुनिना-ज्ञातवशोहन मुनिना 'भग
या 'भगवता महावीरेण ' पपपरिय' प्रज्ञापिा ' परनिय मरूपित ' पसिद्ध' इससे छिन्न रो जाने के कारण अच्छिन्द्र है। (अपरिम्नाई ) मिन्दुरूप से भी कर्मरूप जल इसमें प्रवेश नहीं कर सकता है इसलिये यह अप रिस्रावी है (असकिल्हिो ) असमाधि मार से वर्जिन होने से यर असक्लिष्ट है, (सुद्धो) कर्ममल से रहित होने के कारण शुद्ध है, (सव्वजिणमणुण्णाओ ) समस्त प्राणियो का इससे रित होने के कारण समस्त अरहत भगवतों का यह भाव दुआ है, (एव) इस प्रकार से जो इस ( चउत्य सवरदार ) चतुर्थ सबर द्वार को ( फासिय ) अपने शरीर से स्पृष्ट करते हैं, (पालिय) निरन्तर उपयोगपूर्वक उस का सेवन करते है (सोरिय) अतिचारों से इसको रहित करते है, (तीरिय) पूर्णरूप से इसका सेवन करते है, (किटिय ) दूसरों को इसके पालन करने का उपदेश देते हैं ( सम्म ) तीन करण तीन योगों से इसकी भलीप्रकार से (आराहिय ) अनुपालना करते है सो उनके द्वारा यह योग (आणाप अणुपातिय भवड)) तीर्थकर प्रभुकी आजानुसार ही पालित होता है । (एव) इस प्रकार से (नायनुणिणा भगवया महा કર્મરૂપ જળનું બિદુ પણ તેમાં પ્રવેશ કરી શકતું નથી તેથી તે અપસ્ત્રિાવી છે " असकिलिट्रो" समाधि लावधी २डित पाथी ते अस सिट छ, “सुद्धो"
भगथी २हित सोपान दारो शुद्ध छ । सजिणमणुण्णाओ" समस्त જીવોનું તેનાથી હિત થવાને કારણે સમસ્ત અહંત ભગવાને દ્વારા તે માન્ય थये , "ए" मा ४२२ । " चउत्थ सवरदार " याथा स १२वारना "फासिय " पोताना शरीथा २५० ४२ छ, " पालिय" नित२ रुपया पूर्व तेनु सेवन ४२ छ, 'सोहिय " मतियाराथी तेनु २२ , 'तीरिय" पृशते तेनु सेवन उरे छ, “किट्रिय" मीलन तेनु पासन उ२ान 94६श मा छ, 'सम्म" र ४२ प योगथीत सारी रीते " आराहिय" मनुपाटान उरे छ, तमना द्वारा योगनु “आणाए अणुपालिय भवह" तीय ३२ सावाननी सामानुसार पालन थाय छ " एव" | डारे “नाय मुणिणा भगवया महावीरेण "ज्ञात पसमापन थयेस भुनि लगवान भडा