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सुदशिनी टीश अ० ४ २० । अध्ययनोपमहार प्रसिद्ध । मिवरमामणमिग' सिद्धपरशामनमिदम् , 'आवरिय' आख्यात 'सुदेसिय' मुदेशित 'सत्य' प्रशस्त 'चउत्थ सरदार' चतुर्थ सवरद्वार 'समत्त' ममाप्तम् । ' तिमि ' इति ब्रवीमि । अस सूास्य व्यारयाऽ पूर्ववद् पो या ॥ मू०११ ॥ ॥ इति श्री विश्वविर यात-जगहम - प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभापाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्यनिर्मापक- गदिमानमर्दकश्रीगाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपितकोल्हापुरराजगुरु-पानाचारि जैनाचार्य जैनधर्मदिनाकापूज्यश्री घासीलालनतिपिरचिनाया श्री प्रश्नव्याकरणमुनस्य सुदर्शन्या रयाया व्यारयाया सपरात्माके द्वीतीये-भागे ब्रह्मचर्यनामक
चतुर्थ सनरद्वार समाप्तम् ॥ ४ ॥ वीरेण ज्ञातवश में उत्पन हर मुनि भगवान महावीर ने (पण्णविय) इस चतुर्थ सवरद्वार को गिप्यों के लिये मामान्यरूप से समझाया है। ( परविय ) वार में भेद-प्रभेद पूर्वक उसका कथन किया है । (पसिद्ध) उमीलिये जिनवचन में यह प्रसिद्ध हुआ है । तथा (सिद्ववरसासणमिण ) भूतकाल में जितने भो सिद्ध हो चुके है उनका यह प्रधान आज्ञारूप शासन है। (आपवित्र) मा भगवान महावीर प्रभुने इसके विषय में सर्व नाव से कहा है और ( सुदेमिय ) दवों मनुजों तथा अस्तुरों से युक्त परिपदा मे इसका उपदेश दिया है। (पसत्य। समस्त प्राणियों का हितकारक होने से प्रशस्त-मगलमय है (चउत्थ सरदार समत्त ) यह चतुर्थ सबरडार समाप्त हुआ (त्तियेमि) हे जबू ! जैसा मैंने भगवान से सुना है वैसा ही में करता।
पारे “ पण्णविय " मा योथा वारने शिष्याने भाटे सामान्य ३२ समनव्यु 52 "परूविय" सार था लेह असे. पूर्व तेनु थन युछे ' पसिद्ध" ते णे नवयनमा त प्रसिद्ध थये २ तथा “सिद्धवरसासणमिण" ભૂતકાળમાં જેટલા સિદ્ધ થઈ ગયા છે તેમનું આ મુખ્ય આજ્ઞા રૂપ શાસન छ " आघविय" से लगवान महावीरे तेन विधे म माथी ४यु छ गने “ सुदेसिय" वो, माणुस तथा असुरोथी युत परिपामा तेना उपशाच्या छ “पसत्य" समस्त प्राणीमाने माटे हित २४ उपाथीप्रशस्त भगमय छ 'चउत्य सवरदार समत्त"मा योथु म१२६।२ सभात थयु “त्तिबेमि" હે જ બૂ' જેવું ભગવાનને મુખે સાભળ્યુ હતુ તેવુ જ તેનું કથન કરૂ છુ. प्र १०५