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सुशिनी टीका म० ३ ०२ 'अनुशातमत'नामकचतुर्थीभाग्नानिरूपणम् ७५९ चालनरूपचापल्ययुक्त भोक्तव्यम् । न साहसम्-अप्रतिलेखित भोक्तव्यम् , तथा'नय'नच 'परस्स' परस्य एकेन्द्रियादेः 'पीकर' पीडाकर 'सावज्ज' सापद्य-सचित्त भोक्तव्यम् । एवमुपक्षणादुरस्त्रपात्रादिपरिभोगोऽपि ग्राह्यः। तर्हिकय भोक्तव्यम् ? इत्याह | 'तह भोक्तन्य' तथा भोक्तव्य 'जह ' यथा 'से' वस्यसयतस्य ' तइय' तृतीय 'वय' नत अदत्तादानविरमणरूप 'नसीयह' न सीदति-न नश्यवि यया-अदत्तादानविरमगरूप व्रत न विनश्येत्तथा भोक्तव्यमित्यर्थः, 'साहारणपिंडवायला साधारणपिण्डपातलामे सति ' मुहुम' मूक्ष्म दुर्निरीक्षम् ,-पूर्णरूपेणेत्यर्थ , ' अदिण्णादाणविरमणवयनियमण' अदत्तादानविर शीघ्रता करके भोजन नहीं करना चाहिये। तथा (न चवल) हाथ, गर्दन आदि अवयवों को चलाते हुए भोजन नहीं करना चाहिये। तथा ( न सारस ) अप्रतिलेखित भोजन नहीं करना चाहिये। और (न य परस्स पीलाकर सावज्ज एकेन्द्रियादिक जीवो को पीडा कारक सावद्य-सचित्त-भोजन न करना चाहिये । इसी तरहले वस्त्र पात्रादिकके परिभोग में भी यही बात समझ लेनी चाहिये। तो फिर कैसे भोजन करना चाहिये ? इस बात को अप सूत्रकार प्रकट करते हैं, वे कहते हैं कि (से) उस सयत को (तह भोत्तव्च ) इस प्रकार से भोजन करना चारिये कि (जह ) जिससे (तइय वय) अनत्तादानविरमणरूप तीसरा व्रत (न सीयइ ) नष्ट न होवे (साहारणपिंडवायलाभे) इस तरह पूर्वोक्त साधारण कल्पनीय-पिंडपात-भिक्षा की प्राप्ति होने पर (सुष्टम) सूक्ष्म रूप से अर्थात्-पूर्णरूप से (अदिण्णादाणविरमणवयनियमण) इस नध्य तथा "नवल" डाथ, ४ मा अवयवान सावता सावता पार साटन २७ मे नही तथा "न साहस" मप्रति मितान न ४२७ नास नही सन "न य परस्स पीलाकर सावज्ज" मेन्द्रिय मालिवाने પીડા કારક સાવદ્ય-સચિત્ત-ભજન ન કરવું જોઈએ એ જ રીતે વસ્ત્ર, પાત્ર આદિના પરિભોગમાં પણ એ જ વાત સમજી લેવી તે પછી કેવું ભોજન કરવું જોઈએ ? તે વાતને પ્રગટ કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે “ સે” તે સયતે "तह भोत्तव्य " 21 प्रमाणे सन ४२७ नये “जह" रथी " तइय वय" महतहान विरम ३५ श्री प्रत “न सीयइ, नए न - याय “साहारणपिंडवायलाभे " ! रीते पूर्वरित साधारण पनीय
उपात-मिक्षानी प्रति यता “ सुहुम " सूक्ष्म३चे सरसे , ५१३३ " अदिण्णादाणविरमणवयनियमण" महत्तान विरभ प्रत ५२ नियत्र-मधिर