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सुदर्शिनी टीकाअ०४ ०१०' व्रणीत भोजनवर्जन नामकपञ्चमभावना निरूपणम् ८२७ भवइ अंतरप्पा आरयमणा विरयगामवम्मे जिइदिए वंभरगुते ॥ सू० १० ॥
टीका- ' पचम' पञ्चमीं प्रणीतभोजनवर्जनरूपा भावनामाढ - ' आहारपणीयनिद्धभोयणविजए ' जाहारमणीत स्निग्य भोजननिवर्जन:- जाहारः = अशनादिः, स च प्रणीतः=मगलत्स्नेहनिन्दुध, तथा-स्निग्ध-चिवण च तद् भोजन च = स्निग्धभोजनम्, अनयोर्द्वन्द्व', तस्य विसर्जकः = परित्यक्ता, तथा ' सजए ' सयतः - सयमवान् ' मुसाहू ' सुसाधु =निर्वाणसाधक योगसाधनतत्परः, तथावत्रगखीरद हिसप्पिनवणीय तेलगुडखड मच्छडि यखज्जगनिगइ परिचत्तकयाहारो' व्यपगत क्षीरदधिसर्पिर्नवनीत तैलगुड खण्डमत्स्यण्डिक मधु खाद्य कविकृतिपरित्यक्तकृता हारः- तत्र-व्यपगताः=परिहृताः क्षीर- दुग्ध, दधि- प्रसिद्धम्, सर्पिः = घृतम्, नवनीत- 'मक्खन' इति भाषाप्रसिद्धम्, तैल प्रसिद्धम्, गुडः = प्रसिद्ध ' खण्ड = शर्करा,
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अब सूत्रकार इस व्रत की पाचवी भावना को कहते है - ' पचमआहारपणीय' इत्यादि० |
टीका - (पचम) पाचवी भावना इस व्रत की प्रणीत भोजन वर्जन रूप है, वह इस प्रकार से हे - (आहारपणीयनिद्ध भोयणविवज्जए) जो आहार प्रणीन- जिसमे से घृत की विन्दुएँ नीचे टपक रही हो ऐसे कामोद्दीपक तथा स्निग्ध-रसयुक्त हो साधु को वह नही खाना चाहिये । क्यों कि वह (सजए ) वह सयमवाला होता है और (सुसाहू) निर्वाण साधक मनोवाक्काय योग के सावन करने में तत्पर रहता है, इसलिये उसको ( वयगयखीर दहिसप्पिनवणीय तेलगुडखड मच्छडिय महुखज्जगचिगह पर चित्तकयाहारो) दूध, दही, घृत, मक्खन, तेल, गुड,
ત્યાગ
हवे सूत्रार मा नतनी पायभी भावना गतायें छे- "पचम आहारपणीय" त्याहि टीअर्थ - " पचम" मा व्रतनी पामभी भावना " प्रणीत भोजन नाभनी छे ते या प्रभा छे - " आहारपणीयनिद्धभोयणविवज्जए ' ने आगीत, भेटले કે જેમાથી ઘીના ટીપા નીચે ટપકતા હોય એવા કામેાદ્દીપક તથા સ્નિગ્ધસ્ युक्त भाडार साधुमे जावो लेह से नही अर े ते ' सजए ' सयभी डाय छे भने “सुसाहू" निवाणुनाभाध मनो वानय योग माधवाने तत्पर होय छे तेथी तेभो " ववगय सीर दहिसप्पि - ननणीयतेल गुडस डमच्छडियमहुसज्जगविगइ पर चित्तकयाहारो " दूध, हडी, घी, भाषण, तेस, गोण, साउर, भाड वगेरेथी
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