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प्रमव्याकरणसूत्रे एभिः शालन्ते शोभन्ते यास्ताभिः, नया-'जणुफलपेमियाहिं ' जनुकूल प्रेमिकामिः अनुल-मनोऽभिरुचिकर प्रेम-प्रीविर्यामा ताभि', प्रतादृशीमिः 'सद्धिं ' सार्धम् , 'अणूभूया' अनुभूना: अनुमाविषयीकता. 'सयणमपजोगा' शयनसप्रयोगाशयनानि च राप्रयोगा =सम्पश्चेिति इतरेतरयोगद्वन्द्व, शयन सपयोगा ? इत्याह-' उ उ मुहारकुमुममुरभिचदगमुग परमागर गृहफरिमा त्यभूसणगुणोरवेया' मातमुख घरकुममसुरमिचन्दनमुगन्धरनामधूप मुसम्पर्शनवभूपणगुणोपपेताः, तत्र-तुमुसानि-कालोचितानि यानि घरकुमुमानि, तया-मुरभि चन्दनस्य सुगन्धो शोमनामोदयुक्तो परम् श्रेष्ठो यो पास गन्धः स , तथा-धूपः, तथा-मुखस्पर्शानि यानि वस्राणि, तथा-भूपणानि च, तेपा ये गुणास्तैम्पपेता स्ते श्रमणेन द्रष्टु कपयितु स्मर्तुं वा न योग्या' । तथा-'रमणिज्जा उज्ज गेज्नप विस्खेवविलाससालिणीहिं ) राव, भाव, ललित, विक्षेप और विलास से सुहावना स्त्रियों के साथ तगा (अणुशलपेमिया) जिनकी प्रीति मन को मुदित करने वाली होती है ऐसी (इस्वीहिंसादि) स्त्रीयों केसाथ भोगे गये शयन सरधी और सपर्क सरधो पूर्वकालिक भोगों का कि जो ( उ उमुबरकुसुमसुरभि चदण सुगध-वर-वासधूच-सुहफरिस वत्थभूसण-गुणोववेया) कालोचित कुसुमों की सुगधि आदि रूप गुणों से विशेष रूप में आकर्षक होते थे, सुरभिचदन की श्रेष्ट गध से जो मनोमोहक बने रहते थे, कृष्णागुरु आदि सुगधित द्रव्यों की धूप के ससर्ग से जिनमे से महक उड़ा करती थी तथा वस्त्र और ओभूपर्णा के आडम्बर की छटा से जिन्हे भोगने लिए चित्त परबस लालायित बन जाया करता था, उन सब साधु को कभी भी स्मरग नहीं करना चाहिये, किसी से ऐसे भोगों की,पाते नहीं करना चाहिये और न ऐसे लिणीहि " डाव, माप, वि२५ मन विसासथी शालती श्रीमानी साथै तथा "अणुकूलपेमियाहि "नी प्रीति भनने मानत नारी जय सेवी " इत्थीहि सद्धि " श्रीमानी साथे लोगवस शयन समधी मसग समधी पूरी लि लागानु २ ' उ उ मुहबर-कुसुमसुरभि-चदण-सुगध-वरसाधूनसुह फरिसवस्थ-भूसण-गुणोववेया " सारित पोना सुगधी माहि३५ सुधाथी વિશેષ આકર્ષક થતુ હતુ, સુરભિ ચ દનની શ્રેષ્ઠ ગધથી જે મને હર બનતુ હતુ, કૃષ્ણાગરૂ આદિ સુગંધિત દ્રવ્યના ધૂપને સ સર્ગથી જેનામાં મહક ઉઠયા કરતી હતી તથા વસ્ત્ર અને આભૂષણના આડબરની છટાથી જેને ભગવાને માટે મન લલચાઈ ગયા કરતુ હતુ, એ બધી વાતનુ સાધુએ કદીપણું સ્મરણ કરવું જોઈએ નહી, કેઈની સાથે એવા ભોગેની વાત કરવી જોઈએ નહી,