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सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०१ प्रमचर्य स्वरूपनिरूपणम्
७६७ तयवेद ब्रह्मचर्यमनि शुभ्रमिति भाष., तया- निरायास' निरायास-तेहाजन कम् , 'निस्वलेव ' निरुपलेपम्-विषयस्नेहपार्जितम् , तथा-'निसुइयर' नि तिगृहम् निहतेः-चित्तसमावेः गृह स्थानम् , ' नियमनिष्पाप' नियमनिष्प्र कम्प-नियमेन=निश्चयेन, निष्पकम्प-अविचलम्-निरतिचारत्वात् , तथा-' तर रूप तुप से विहीन होने के कारण निलकुल शुभ्र-पवित्र है । (निरायास) हमके पालन करने से किसी भी प्रकार का पालनकर्ता को आयासअर्थात्-कष्ट नहीं उठाना पड़ता है इसलिये खेद का अजनक होने से यह निरायामरूप है। (निम्बलेव ) वैपयिक पदार्थो की ओर ब्रमचारी के चित्त में थोड़ा सा भी स्नेह-रागभाव नही होता है, अतः विपय स्नेहवर्जित होने से यह ब्रह्मचर्य निरुपलेप है। (नियुइघर) ब्रह्मचारी के हि चित्त की स्वस्थता रहती है, क्यों कि विपयों की ओर उसकी लालसा नही जाती है, अत उस सबंध को लेकर उसके चित्त में असमाधिरूप आकुल व्याकुल परिणति नही रहती है इसलिये यह ब्रह्मचर्य चित्त ममाधि का एक घर है। (नियमनिप्पकप) अतिचारों से विहीन होने के कारण यह ब्रह्मचर्य नियम से-निश्चय से निष्प्रकम्पअविचलित होता है। तात्पर्य यह है कि गृहस्थों के ब्रह्मचर्य व्रत में अतिचार लग सकने के कारण उनका वह ब्रह्मचर्य विचलित नहीं होता है परन्तु साल सयमी जनों का ब्रह्मचर्य अतिचारों से विहीन होता है, इसलिये यह यहा अविचलित कहा गया है । (तवसजमहापाथी तन गुन पवित्र “निरायास" तेनु पासान उपाथी पासन કર્તાને કોઈ પણ પ્રકા આયાસ–ખેદ એટને કે કષ્ટ ઉઠાવ પતુ નથી तेथी मेहनन नहपान २ ते निरायास३५ छ " निस्चलेच" वैषयि પદાર્થોની તરફ બ્રહ્મચારીને ચિત્તમાં જરી પણ નેહ-રાગભાવ થતો નથી, तथी विषय-२३ २खित सापाथी प्रहायर्यने निकपडे५ छ " निन्जुइधर " બ્રહ્મચારીના ચિત્તની સ્વસ્થતા રહે છે, કારણ વિષયોની પ્રત્યે તેને લાલસા થતી નથી તે સબ ધને લીધે તેને ચિત્તમા અસમાધિરૂપ આકુળ વ્યાકુળતાના રૂપ પરિણતિ રહેતી નથી તેથી આ બ્રહ્મચર્ય ચિત્ત સમાધિનું એક ઘર છે "नियमनिष्पकप " अतियाराथी (हुत पाने २२, २मा प्राय अवश्य નિષ્પકમ્પ-અવિચલિત હોય છે તેનું તાત્પર્ય એ છે કે ગૃહના બ્રહ્મચર્ય વ્રતમાં અતિચાર લાગી શકે છે તે કારણે તેમનું બ્રહ્મચર્ય અવિચલિત હેતુ નથી, પણ અકળ મયમીજનનુ બ્રહ્મચર્ય અતિચારેથી રહિત હોય છે, તે प्र० ९८