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सुदर्शिनी टोकाट अ० ४ सू०३ ब्रह्मचर्याराधनफलम् ___ तथा-'सुद्धचरिएण ' शुद्धचरितेन सम्यगाचरितेन 'जेण' येन ब्रह्म चर्येण, 'भाइ' भरति 'मुरभणो' सुनाह्मणः आत्मज्ञानतत्परः, मुसमणो' मुश्रमण =मृतपरस्त्री 'मुसाहू ' सुसाधुः निर्माणसाधकः 'सुईसी ' सुमपिः, यथावस्तुदर्शक', 'मुमुणी ' मुमुनिः जिनाज्ञाधारकः, 'सुसजए ' सुसयतःपरमयतनापरायणः। तया स एव 'भिक्सू भिक्षुः सत्यागी परमपुरुषार्थसाधको वा, जो यः 'सुद्ध' शुद्र 'वभचेर' ब्रह्मचर्य 'चरई' चरति पालयति॥३॥
(सुद्धचरिण जेग सुरभणो भवड ) अच्छी तरह आचरित हुए इस ब्रह्मचर्य से ही मनुष्य सुब्राह्मण-आत्म ज्ञान में तत्पर-होता है, (सुसमणो) सुश्रमण-मुतपस्वी, (सुसाइ) सुसाधु-निर्वाण साधक, (सुईसी) सुऋपि-यथावत् वस्तुदर्शक (मुमुणी ) सुमुनि-जिनाज्ञा का आराधक, आर (सुसजा) सुसयत परम यतना में परायण होता है। तथा (स ण्य भिक्ख) यही सचा भिक्ख है-सर्व त्यागी-अयवापरम पुरुपार्थ साधक है, (जो सुद्ध यभचेर चरइ ) जो इस ब्रह्मचर्य को शुद्ध रीति से पालना है।
भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा इस ब्रह्मचर्य की गुणगरिमा (मरिमा) का ही कयन किया है । वे कहते है कि इस एक ब्रह्मचर्य व्रतके पूर्णरूपसे नाराधिक होनेपर सत्य, शील आदि जितने भी सद्गुण हैं वे सब आराधित हो जाते है । यह ब्रह्मचर्य पचमहावतों का मूलकारण है । अतःयावज्जीव साधु को इसका सेवन करते रहना चाहिये । जिस
"सुद्धचरिएण जेण सुघमणो भवइ ' सारी सायरपामा मावस मा प्राय थी। मनुष्य सुग्राम-मात्म ज्ञानमा तत्५२ थाय छ, “सुसमणो" सुश्रम-सुतपस्या-" मुसाहू " सुसाधु-निर्वाण साध४, “सुईसी"सुऋषि-यथावत् वस्तु शर, "सुमुणी " Trt ज्ञानी माराध, भने “सुसजए" सुसयतपरभ यतनामा परायण थाय छ, तथा “स एव भिक्रसू" ते साया Yि छ-त्यागी २५३१ ५२म पुरुषार्थ सा छ, “जो सुद्ध बमचेर घरह" આ બ્રહ્મચર્યને શુદ્ધ રીતે પાળે છે
ભાવાર્ય–સૂત્રકારે આ સૂત્રદ્વારા બ્રહ્મચર્યના ગુણ ગૌરવનુ જ વર્ણન કર્યું છે તેઓ કહે છે કે આ એક બ્રહાચર્ય વ્રતનુ પૂર્ણ સ્વરૂપે આરાધના કરવામાં આવે તે સત્ય, શીલ આદિ જેટલા સદ્દગુણ કે તેમનું આરાધન આપોઆપ થઈ જાય છે આ બ્રહ્મચર્ય પાચ મહાનતોનું મૂળ કારણ છે તેથી સાધુએ જીવનપર્યન્ત તેનું સેવન કરવું જોઈએ જે રીતે મૂળ વિના કઈ પણ વસ્તુની