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वासस्थानम् तन या वसतिः निवासस्तदूपो यः समितियोगस्तेन 'भाविओ' भावितासितः 'अतरप्पा ' भन्तरात्मा = जीनः ' आरयमगा जारतमना आसमन्तात् रत=नह्मचर्ये समस्त मनो यस्य स तथा, - विरयगानम्मे ' विरतग्रामधर्मः = निवृत्तो ग्रामघमत = मैथुनाद्य स तथा अत एव ' जिइदिए' जितेन्द्रिय = वशीकृतेन्द्रियः, 'नभचेरगुत्ते ' ब्रह्मचर्यगुप्तः=ननिय ब्रह्मचर्यमहितः दशविधत्रह्मचर्य - समाधिस्थानयुक्तीना 'भाइ' भवति ॥ ०६ ॥
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वसति समिजोगेण ) इस प्रकार स्त्री, पशु, पडक के समर्ग से रहित स्थान में ठहरने रूप समिति के योग से ( भाविओ अतरप्पा ) भावित अतरात्मा - मुनि (आरयमणा ) सर्व प्रकार से ब्रह्मचर्य व्रत में ससक्त मन वाला हो जाता हैं और - (विरयगामधम्मो ) ग्रामधर्म-मैथुन से विरत हो जाता है । अतएव वह (जिदिए वभचेरगुत्तेभव ) जितेन्द्रिय बनकर नवविधब्रह्मचर्य की गुप्ति से अथवा दशविध ब्रह्मचर्य समाधी स्थान से युक्त वन जाता है।
भावार्थ -- इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने ब्रह्मचर्य व्रत को स्थिर रखने वाली पाच भावनाओं में से प्रथम स्त्रीपशु पडक सेवित शयनासन वर्जन रूप भावना का स्वरूप स्पष्ट किया है। माधुजन को ऐसी ही वसति-स्थान में निवास करने को प्रभु की आज्ञा है कि जो निर्दोष हो । स्त्री पशु पडक आदि के ससर्ग से रहित हो। क्यो कि ऐसे स्थान में निवास करने से माधु के ब्रह्मचर्य व्रत का देश से भग अथवा सर्वथा भग हो सकता है । तथा जिस स्थान पर बैठकर स्त्रिया विविध
આ રીતે સી, પશુ, અને પડકના સસથી રહિત સ્થાનમાં રહેવા રૂપ समितिना योगथी “भाविओ अतरप्पा" लावित अतरात्मा-भुनि " आरयमणा" हरे अअरे प्राथर्य व्रतमा दृढ भनवाजा थर्ध लय छे भने “विरयगामधम्मो " श्राभधर्म-मैथुनथी भुक्त था लय छे तेथी ते " जिइदियधभचेरगुत्ते भवइ' જિતેન્દ્રિય થઈને નવ વિધ બ્રહ્મચર્યંની ગુપ્તિથી અથવા દશવિધ પ્રાચય સમાધિ સ્થાનથી યુક્ત ખની જાય છે
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भावार्थ- —આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે બ્રહ્મચર્ય વ્રતને સ્થિર રાખવાની પાચ ભાવનાઓમાથી સૌથી પહેલી સ્ત્રી, પશુ, પડક સેવિત શયનાસન વનરૂપ ભાવનાનું સ્વરૂપ સ્પષ્ટ કર્યું છે. સાધુજનાને એવા સ્થાનમા વસવાની પ્રભુની આજ્ઞા છે કે જે નિર્દોષ હાય, સ્ત્રી, પશુ, પડ- આદિના સસથી રહિત હાય કારણુ કે એવા સ્થાનમા વસવાથી સાધુના બ્રહ્મચર્ય વ્રતના અર્થાત જગ થાય છે અથવા સર્વથા સગ થઈ શકે છે. તથા જે સ્થાને બેસીને