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सुदर्शिनी टीका ४० ३ सू० ११ अध्ययनोपसंहार सवः नूतनकर्मागमनरहितत्वात् , ' अफलसो' आलुपः = अशुभाम्यवसायरहि तत्वाद् , 'अन्छिदो ' अन्छिद्र =छिन्नपापस्रोतस्त्वात् 'अपरिस्मानी' अपरिसापीपिन्दुरूपेणापि मजलप्रवेशरहितत्वात् , 'जसफिरिहा' असलिटा =असमाधिभापतित्वात् , 'मुद्धो' शुद्धः-कर्ममलयनितत्वात् , 'सव्वनिणमणुण्याओ' सजिनानुज्ञातः सकलपाणिहितकारकत्वात्सपामर्हतामनुमतश्चास्ति । एवम् ए तादृशमिद । ' तइय' तृतीय सवरद्वारम् ' फासिय 'स्पृष्ट कायेनाचरित, 'पालिय' पालित-सततमुपयोगेनसेचित 'सोहिय' शोधित अतीचारवर्जनेन शुद्धी युक्त हुए मुनिजन को (नेयम्यो ) पालन करने योग्य है । क्यों कि यह अदत्तादानविरमण रूप योग (अणासवो) नूतनकर्मो के आगमन से रहित होने के कारण अनास्रवरूप है, (अम्लसो) अशुभ अध्यवसाय से वर्जित होने के कारण अकलुप है, (अच्छिहो ) पाप का स्रोत इससे छिन्न हो जाता है अतः अच्छिद्र है ( अपरिस्साधी) चिन्दुरुप से भी कर्मरूपजल इसमें प्रवेश नहीं कर सकता है इमलिये यह अपरिस्रावी है। (असकिलिट्ठो) असमाधिभाव से वर्जित होने के कारण यह असलिष्ट है। (सुद्धो) कर्ममल से रहित होने के कारण शुद्ध है (सव्वजिणमणुण्णायो समस्त प्राणियो का इससे हित होता है इस लिये समस्त अरहत नगवतो को यह मान्य हुआ है। (एव) ऐसा यह ( तइय ) तृतीय सवर द्वार है । इस सवरद्वार को जो (फासिय) अपने शरीर से आचरित करते हैं, (पालिय) निरन्तर उपयोग पूर्वक इसे सेवित करते हैं (मोहिय ) अतिचारों से इसे रहित करते हैं
सुरत भनिनान " नेयव्यो" पासन ४२वा योग्य छ मा महत्तहान विभाग ३५ या अणासवो" नवा ना मागमनथी २डित जवान (२२ मनास१३५ छ, “ अकलुसो" मशुल अध्यवसायथी २डित पाने अरहरी मटुप छ, “अच्छिो " पापना सोतनाथी छिन्न नय छ तेथी मछिद्र छ, “अपरिसावी) म ३५ नु नि ५ तेमा प्रवेशी शतु नथी तेथी ते अ५ रिसावी छ, " अस किल्टिो" समाधि मा २हित पाने २ ते असे.
See , " सुद्धो" भ' माथी -हित पाने २0 ते शुछ, “सव्वजिणमणुण्णाओ" समस्त प्रमानु तनाथी या थाय छे, ४२ समस्त मत मावानाने ते मान्य थयेट छ, “एव " मे " तइय" । ततीय स१२६२ छे भासवान ने “फासिय " पाताना शरीरथी मायरे . "पालिय" नि२ त२ ७५या। पूर्व नेनु मेवन ४२ छ, "सोहिय" मतियाराथी
छ "किहिय" तनु
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