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सुदर्शिनी टीका १०३ सू०६ 'विविक्तययतिवास'नामकप्रथमभायनानिरूपणम् ७५३ शाला-रयादिगृहम् , कृप्यशाला-गृहोपकरणशाला, मण्डपा विश्रामस्थानम् , शून्यगृह प्रसिद्ध, श्मशानम् असिद्धम् , लयन-पृहम् , आपण:=पण्यस्थानम् , 'हाट' इति भापा प्रसिद्धम् , एपा समाहार द्वन्द्वस्तस्मित्तथोरते, अर्थात्-देवकुलादिरूपेऽप्टादशविधे, नथा-'अनमिय ' अन्यस्मिंश्च ‘एरमाइयमि' एवमादिके-एव विधे कथ भूते ? इत्याह-' दगमट्टिय-वीय-हरिय-तस पाण अससत्ते' दकमृत्तिका वीजहरितप्रसप्राणसमक्ते-दकम् जलम् , मृत्तिका प्रतीता, वीजानि= शाल्यादोनि, हरितानि-दुर्गादीनि समाणाद्वीन्द्रियादयः, तैरससक्ते रहिते, पुनः कीदृशे ? 'आहाकठे' यथाश्ते गृहस्थेन स्वार्थ निर्मिते 'फामुए ' प्रामुके -निर्योपे 'विविक्ते-स्त्रीपशुपण्डरहिते, अत एम-' पसत्ये' अगस्ते श्रेष्ठे साधुनिवासयोग्ये 'उस्सए' उपाश्रये-साधुभिः 'पिरियन्ध' विहर्तव्य आश्रयितव्य ' होड' भाति । एतादृशे उपाश्रये साधुभिर्नियासः कर्तव्य इत्यर्थः। स्थान में, उद्यान में-उपवन में, यानशाला में स्थादि गृह में, कुप्यशाला में-गृहोपकरण रखने के स्थान में, मडप में-विश्राम स्थान में-शुन्य गृह में-सूने घर में, श्मशान में-मरघट में, लवन में-पर्वत की तलहटी में निर्मित पापण घर में, आपण में-हाट में (अनमि य एवमाइयम्मि)तथा इसी तरह के दूसरे स्थान में कि जो (दगमहिय-घीय-हरिय-तसपाण अससत्ते) जल, मृत्तिका, बीज, दूर्वा, द्वीन्द्रियादिक प्रस, इन से रहित हो, तथा ( अहाकडे ) जिस गृहस्थ ने अपने निमित्त पनवाया हो, एच जो ( फासुए) निर्दोष हो, तथा (विचित्त) स्त्री, पशु, पंडक से रहित हो और ( पसत्थे) प्रशस्त-साधुजनों के निवास योग्य हो (उवस्सए) ऐसे उपाश्रय मे (होइविहरियव्य) साधुओ को रहना चाहिये। (अहा થાનશાલામા-રથાદિ ગ્રહમા, કુખ્યશાલામા-ગૃહોપકરણ રાખવાની જગ્યામાં, भ उपमा-विश्राम स्थानमा, शून्यमा -सूना घरमा, स्मशानभा (भरघरमा), सयनमा-पतनी तटीमा स्येस पाषाणुधरमा, मापाशुभा-हाटमा, “ अग्नम्मि य एवमाइयम्मि" तथा मे प्रा२ना मन्य स्थानमा २ " दगमहिय-धीय -हरिय-तसपाणअससत्ते" , भाटी, मी इ, द्विन्द्रीया िस से साथी रहित हत्य, तथा “ अहाकड " २ पाताने माट मनाप सन्यु डाय, अन " फासुए " निषि डाय, तथा “ विवित्त" सी, ५२, ५३४थी २हित डाय, मने "पसत्थे" प्रशस्त-साधुबनाना निवासने भाटे योज्य राय " उवस्सए " मेवा उपाश्रयमा “ होइ विहरियव्व " साधुमारी २७ नये "अहाकम्मनहुले य जेसे" भने अाश्रय आधाम मसराय