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मनव्याकरणस्ने 'सेवइ' सेवते, न च 'परस्स' परस्य 'परिचय' परिवाद-निन्दा 'जपई' जल्पति, 'न याविन चापि परस्य 'दोसे' दोपान् ‘गेण्इइ ' गृहाति, परदोपदी न भवतीत्यर्थः, तया- परवरएसेण गि' परव्यपदेशेनापि बालरलानादिनिमित्ते नापि स्वार्थमन्यार्थ या न किंचि' न किञ्चिद् औषधीपज्याघपि, 'गेण्ड' गृह्णाति, तथा 'ण य'नच 'पिपरिणामेइ ' पिपरिणमयवि-धर्माद् गुर्यादिभ्यश्च विमुखी करोती ' कचि जण' कश्चिदपि जन शिष्यादिकम् । ' न याचि' न चापि ' णासेइ नाशयति 'दिण्णमुरुय दत्सुकृतम् , दत्तम् अभयदानादिक, सुकृतन्त्रतप्रत्याख्यानादिक अपि तु तदनुमोदयतीत्यर्थः, परकृत शुभकृत्य न प्रच्छादयन्ति, तथा-'दाऊण य ' दया च देय वस्तु, 'काऊण य' कृत्या च सस्तारक, वस्त्र, पादकवल, दउक, रजोहरण, निषया, चोलपट्टक, सदो रकमुखवत्रिका, पादप्रोग्छन आदि तथा भाजन, भाण्ड, उपधि, उपकरण, इनका सेवन करता है, (न य परिवायपरस्स जपड) दूसरों की निंदा नहीं करता है, (न यावि परस्स डोले गेहत) दूसरों के दोषो को नहीं देखता है, (पर ववएसेणवि न किंचि गेडा) याल, ग्लोन आदि के निमित्त से लाये हुए औपध, भैपज्य आदि कुछ भी बस्तु अपने अथया दूसरे के काम में नरी लेता है, (ण य विपरिणामेइ कचि जण ) धर्म से तथा अपने गुरुजनों से जो शिष्यादिकों को विमुख नहीं करता है, (ण यावि णासेइ दिण्ण सुकय) दत्त-अभय दानगदिक का, सुकृत-व्रत प्रत्याख्यान आदि का जो नाश नही करता है किन्तु उनकी अनुमोदना ही करता है, अर्थात् परकृत शुभकृत्यों को जो आच्छादित नहीं करता है (दाऊण य काऊण य ण य पच्छासा पी8, ५१४, शय्या सस्ता२४, पर, पास, ४, २०२५], यासप, દેરા સાથેની મુહંપત્તિ, પાદBછન આદિ તથા ભાજન, ભાંડ, ઉપાધિ मा ५४२५नु सेवन ४२ते नथी, "न य वि परिवायपरस्स जपई" भीलनी निह४२ते। नथी, “न या वि परस्स दोसे गेण्हा" जीना दोषाने तो नयी, " परववएसेण वि न किंचि गेण्हह" माण, खान माहिने निभित्ते લાવેલા ઔષવ, વૈષજ્ય, આદિ કોઈ પણ વસ્તુ પિતાના અથવા ભીજાના ઉપ यासमा सत नथी “ण य विपरिणामेह किंचि जण" शिष्याहन भयो है ४३गनाथी विभुम ४२त नथी, ‘ण यावि णासेइ दिण्ण सुका " तઅભયદાનાદિકનું સુકૃત-પત પ્રત્યાખ્યાન આદિને જે નાશ કરતે નથી–પણ તેની અનુમોદના જ કરે છે, એટલે કે અન્ય વડે કરાયેલ શુભકૃત્યને જે ઢાકાતે नयी " दाऊणय काऊणय ण य पच्छात्ताविए हाइ' उय परत . .