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दर्शिनी टीका भ० ०४ को मुनिरदतादानादिवतमाराधयति
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अप्रमाणभोजी द्वात्किचलाधिकाहारी, 'सयय ' सतत निरन्तरम् ' अणुरद्धवैरे' अनुद्धौरा अन्याच्छिन्नौरभाव, चपुनः 'निच्चरोसी' नीत्यरोपी= सदाकोपील:, ' से वारिसए ' स तादृशः साधुः 'नाराहए ' नाराययति' इण इदम् = पूर्वोक्त, त= दत्तादानविरतिस्वरूपम् ॥ ० ३ ॥
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क पुनरिद प्रतमाराधयितुं समर्थः ' इत्याह-- ' अह के रिसए ' इत्यादि - मूलम् - अह केरिसए पुणाई आराहए वयमिणं ? जे से उवहि भत्तपाणसगहणदाणकुसले अच्चंत वाल दुबल गिलाण बुडखवगपवत्त्यआयरिय उवज्झाए सेहे साहम्मिए तवस्सिकुलगणस य इयट्टे निज्जरही वेयावच्च अणि - स्सिय दसविह बहुविहं करेइ, नय अवियत्तस्त घरं पविसइ, न य अचित्तस्स भत्तपाण गिण्हइ, न य अचियत्तस्स सेवइ पढिफलग -- सेज्जा- सथारग- वत्थपाय - कबल--दडगरओहरण- निलज्जबोलपट्टगमुहपोत्तियपाय पुछणाइ - भायण
अपने और पर के चित्त में उद्वेगभाव पैदा कर देने वाला साधु असमाघिकारक है, (सया अप्पमाणभोई) सदा वत्तग्रास से अधिक भोजन करने वाला साधु अप्रमाणभोजी कहलाता है (सयय अणुवद्धबेरे य) जिसका वैर भाव कभी भी शान न हो वह साधु सन्तानु-बद्ध र कहलाता है, (निच्चरोसी) जो नित्य ही कुपिन स्थिति में रहता है वह नित्यरोपी कहलाता है । ( से तारिसए) इस प्रकार तपस्तन आदि विशेषणवाला साधु ( इण वयनाराण ) इस महावत की आराधना नही कर सकता है ॥ ३ ॥
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छे, असमाहिकरे " पोताना तथा अन्यना शित्तमा उद्वेग हा उश्नार साधुने असमाधि २५ छे, "सया अप्पमाणभोई 62 સદા ખત્રીશ કાળિયા કરતા पधारे आहार देनार साधुने अप्रभाथ लोक उहे छे, "सयय अणुबद्धवेरेय" એની વેર ભાવના કદી પણ શાન્ત ન થાય તે સાધુને સતતાનુખદ્ધ વૈર કહેवाय छे, " निच्चरोसी " ने हमेशा अधभा रहे छे तेने नित्यरोपी आहे छे, " से तारिसए" या रीते तपशोर आदि विशेष वाणी साधु" इणवय આ મહાવ્રતની આરાધના કરી શકતે નથી
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