________________
७09
सुदर्शिनी टीका अ०२ सू) ९ अध्ययनोपमहार नेतन्या-पालनीयः ' धिडमया' धृतिमता ' मइमया' मतिमता-मेधाविना कथ भूतोऽय योग ? इत्याह- अणासवो' अनायवः ' अफलुसो ' अमलुप 'अच्छिदो' अन्छिद्रः अपरिस्सानी ' अपरित्रानी 'असफिलिहो' जसक्लिष्टः 'स
बजिणमणुण्णाओ' सर्वजिनानुसातश्च । एवम् एतादृशमिद 'वीय' द्वितीय 'सरदार' सवरद्वार 'फामिय' स्पृष्ट' पालिय' पालित ' 'सोहिय' शोधित 'तीरिय' तीरित 'फिट्टिय' कीर्तितम् ' आराहिय ' आराधितम् 'आणाए' आज्ञया यथावत् ' अशुपापिय ' अनुपालित ' भवति । एवम् नमुना प्रकारेण 'णापादेय के विवेक से युक्त हुए मुनिजन को (णेयव्यो) पालन करने योग्य है, क्यों कि यह सत्य महाव्रतरूप योग ( अणामवों) नूतनकर्मो के आस्रव को रोकने वाला होने से अनास्रव रूप है, (अकलुसो) अशुभ अध्यवसार से रहित होने के कारण अकलुपरूप हे (अच्छिद्दो) पाप का स्रोत इससे घद हो जाता है इसलिये अच्छिद्ररूप है, (अपरिस्सावी) एक चिन्दुमात्र भी कर्मरूप जल इसमे प्रविष्ट नती हो सकता है इसलिये यह अपरिस्रावी है, (जसकिलिहो) असमाधिरूप भावसे यह चर्जित होता है इसलिये असक्लिष्ट है । ( सत्वजिणमणुपणाओ) इसीलिये यह समस्त भूत, भविष्यत्, और वर्तमान काल के तीर्थंकरों को मान्य हुआ है। (एव) इस उक्त प्रकार से (वीय) द्वितीय सवर द्वार को जो मुनिजन ( फासिय ) अपने शरीर से स्पर्श करते है, (पालिय) निरन्तर ध्यानपूर्वक इसका सेवन करते हैं, (सोदिय) अतिचारों से इसे रहित बनाते हैं, (तीरिय ) पूर्णरूप से इसे अपने जीवन में उतारते है, (किटिय ) दूसरों को इसे धारण करने का उपदेश देते ३५ यो “अणासवो" ना छीना मासपने ना२ उपाथी मनास१३५ "अकलसो" मशुम मध्यवसायति पाथी मनुष३५ " अच्छिद्दो" पापन। सोत तनाथी १५ 45 तय तेथी भ२ि०३५ , " अपरिस्सावी " બિન્દુ પણ કર્મરૂપી જળ તેમાં પ્રવેશી શકતું નથી, તેથી તે અપરિસાવી છે, "असकिल्विो" मसमाधि३५ माथी ते २डित डाय छ तेथी ते असार ॐ ॥ सव्यजिणमणुण्णाओ" तेथी ते समरत भूत, भविष्य मने वर्तमान
ना तीर्थ शो मान्य उस " एव " म! धुते मारे "वीय" मी सवारने २ भुनिन “फासिय ” पोताना २२थी स्पशे , "पालिय" निरन्तर ध्यानपूर्व तेनु सेवन ४रे थे, " सोहिय " मतियाराथी २डित मनावे छे, " तीरिय " पूरा शते तेने पाताना वनमा तारे छ "किट्रिय, अन्यने तेनु सेवन उरवान। ५२ मा छ, तथा “अपापा