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प्रश्नध्याकरपणे पुनर्मुनिकर्त्तव्यमाह-'जपिय ' उत्पादि
मूलम्-जं पि य होजा हि दव्वजायं सलगयं खेत्तगयं रनमतरगय वा किंचि पुप्फफलतयप्पवालकंदमूलतणकट्टसकराइ अप्प वा वहुं वा अणु वा चल वा न कप्पइ उग्गहे अदिण्णम्मि गेण्हेउ । जे हणि हणि उग्गह अणुण्णाविय गेण्हियन बजेयवो य सम्वकाल अचियत्तघरप्पवेसो अचियत्तभत्तपाणं अचियत्तपीढफलगसेनासथारगवत्थपा. यकवल दंडग-रयहरण--निसेज्ज चोलपग मुहमोत्तियपायपुछणाइभायणभंडोवहिउवगरण। परपरिवाओ परस्त दोसो परववएसेण जचगेहेंति, परस्सनासेइजच सुकय दाणस्स य अतराइय, दाणविप्पणासो पेसुण्ण चेव मच्छरिय च ॥२॥
टीका-'ज पि य' यदपि च ' होजा' भवेत् , हि निश्चित 'दबनाय' द्रव्यजात, तदेवाह= 'खलगय' खलगत-खल धान्यराशीकरणभूमिस्तन गत-- स्थित, तथा-'खेत्तमय' क्षेत्रगतम् क्षेत्रस्थित 'रनमतरगय' अरण्यान्तर्गतम् वनान्तः स्थित वा । किंचि । किञ्चित-किमपि 'पुप्फफलतयप्पवालकदमूलईस व्रत से साधु की आत्मा समस्त वस्तुओं में असारता के दर्शन कर लेने से ढेला और काचन में समान वुद्धि वाला बन जाता है । सू-१॥
सूत्रकार पुनः मुनिजन के ही कर्तव्य को कहते हैं-'जपि य' इ०
टीकार्थ-(जपि य होज्जा हि दव्वजाय ) जो कुछ भी द्रन्य हो चाहे व ( खलगय ) खलिहान मे पड़ा रो चाहे (खेत्तगय) खेत में पडा हो, या ( रनमतरगयं वा) जलग में पड़ा हो ( किंचि) સાધુને આત્મા સમસ્ત વસ્તુઓમાં અસારતાનું દર્શન કરી લેવાથી તેનું અને માટીના ઢેફાને સમાન ભાવે જેનાર બની જાય છે સૂત્ર ૧ |
सूत्रा२ ५२Nथी भुनिनन तव्या शचि - जपि य" त्या टीडा---"जपि य होज्जा हि दव्वजाय "२ प द्रव्य डाय, लख
"सलगय ” मामा ५७यु डायलले “खेत्तगय " ततरमा ५७यु डाय, "रन्नमतरगय वा" सनी २५६२ ५७यु डाय “किं चि" गमेत