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प्रमण्याकरण पत्र द्रव्य न 'कस्सइ ' कस्यापि मयाम्पाऽपयनन्य कहेउ' स्थयितु पा, 'गे ण्हेउ ' स्वय ग्रहीतु परेण वादवि पान कप' न कम्पते, मायोनिवृत्तिवान् । परद्रव्य हप्ना साधुना कि पर्याव्या, ? इत्याह-'अहिरनमुरगाण' अहिरण्य सुवर्णकेन-हिरण्यवर्णनफेन 'समलेदुकाणे' समठेप्टुकाननेन=ममातुल्यः लेष्टु =मृतपण्डं पाशन-णि च उपेक्ष गोयतया यम्य तेन तथोक्तेन मृत्वण्टे सुवर्णे च समभारतेत्यर्थः, 'अपग्गिहमयुरेण' अपरिग्रहसरतेननास्ति परग्रहो यस्य सोऽपरिग्रहः, अन ए सात ममत्वभाषार्जितस्तेन तथोक्तेन साधुना 'लोगम्मि' लोके मर्त्यलोके 'विहरियन' पिहर्तव्यम् , साधुभिरुक्तरीत्या पिहरणीयमिति भारः ।। स०१॥ ण्हेउ वा )और न रवय लेना चाहिये उसको सयत अथवा असयत से लेने के लिये नही करना चाहिये। क्योंकि इस प्रकार की प्रवृत्ति मुनिमार्ग में कल्पित नही कही है। कारण कि साधु (अहिरण्णसुव्यण्णेण)हिरण्य और सुवर्ण इन सब से निवृत्तिवाला होता है माधु को नहिरण्य की चारना होती है और न सुवर्ण की। (समलेटुकवणेण) उमकी दृष्टि में तो उपेक्षणीय होने के कारण मृत्खड मिट्टी का ढेला और काचन दोनों घरावर होते है । अर्थात् वह इन दोनो मे समभाव वाला होता है। (अपरिग्त्रहसवुडेण ) इस तर ममत्वभाव से वर्जित होने के कारण अपरिग्रह से युक्त होते है साधु को इस प्रकार का होकर इस लाक में विचरना चारिये।
भावार्थ-ससार में निर्भय होकर विचरण करने के लिये सब से उत्कृष्ट साधन यदि कोई है कि जिससे लोगों की दृष्टि का आकर्षण हो યતને કહેવું ન જોઈએ, અને પિતે લેવી જોઈએ નહીં કારણ કે એવા प्रारनी प्रवृत्ति भुनीभाभा लयित भावी नथी १२ साधु " अहिरण्ण सुव्वण्णेण" (२९य मन सुपरस मधानी निवृत्ति हाय के साधुन (२ एयनी -छ। डाती नथी । सुप ना ४२छा डाती नथी " समलेट्ठुकचणेण" તેની દૃષ્ટિએ ઉપેક્ષા પાત્ર હોવાથી માટીનું ઢેફ અને કાચન અને સમાન छ भेटले भन्नेमा ते समभावाणी हाय, अपरिग्गहसबुडेण" मा રીતે મમત્વભાવથી રહિત હોવાથી તે અપરિગ્રહી હોય છે સાધુએ એ પ્રકારે અપરિગ્રહવત યુકત બનીને આ લેકમાં વિચારવું જોઈએ
ભાવાર્થ–સ સારમાં નિર્ભય થઈને ફરવાને માટે જે કોઈ સર્વશ્રેષ્ઠ સાધન હિય કે જેનાથી લોકોની દૃષ્ટિ આકર્ષાય અને સાધુત્વ પર વિશ્વાસ જામે તે