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प्रश्नम्याकरण ईर्ष्याबुद्धयापश्यन्तः, ततच 'अपयं' भात्मान 'फयत' मतान्त-कर्तव्य व 'निंदता' निन्दन्तः-निन्दा कुन्तः, 'इह य पुरे पडाह फम्माड पारगाउ' लोके पुरा-जन्मान्तरे च शतानि पापकानि-पापानि कर्माणि 'परिसयता' परिव दन्ता -निन्दन्तः 'चिमणसो' रिमनमा दीनाः सन्तः 'सोएण उज्यमाणा' शोकेन दामाना. अभीष्टरस्तूनाममातिदुखेन सन्तप्यमानाः सन्तः 'परिभूया हुति' परिभूताः जनैरनाहतादुःसमाप्ताथ भवन्ति । तथा 'सत्तपरिवज्जिया य' सत्वपरिवर्जिताथ मनोरलहीनाः 'छोन्मा' क्षोभ्या=निस्सहायतात्परिभवनीया, 'सिप्पकलासमयसत्यपरिवज्जिया' शिल्पकलासमयशास्त्रपरिप जिता-तत्र शिस सपत्ति, सत्कार, सन्मान,तथा भोजन, इनके विशेष प्रकारों की समुदय विधिको ईर्ष्याभाव से देखते है और अपने भाग्यकी आत्माकी तथा अपने पापकारी कर्तव्य की निंदा करते है । हमने (इर य) इस ससार में (पुरे)पूर्वभव में (पावगाड फटाह ) पापकर्म किये है उनका ही यह फल हमें भोगने को मिला है इस प्रकार (परिवयता) दूसरों से कहते हुए (विमणसो) स्वय दीन होकर (सोएण इज्झमाणा) शोक से जलते हुए (परिभूया) दुःखी (हुति) होते है अर्थात् अभीष्ट वस्तु की अप्राप्ति के दुःख से निरन्तर सन्तप्यमान होते हुए भीतर ही भीतर खेद रवीन्न बने हुए ये दूसरों के द्वारा अनाहत होते रहते हैं एव दुःखों को भोगते रहते है। तथा ( सत्तपरिवज्जिया य) मनोबल से रहित बने हुए ये (छोभा) निस्सहाय होनेके कारण हरएक व्यक्ति के द्वारा अनादरणीय होते रहते है । तथा (सिप्प ) चित्रादिकों को સન્માન, તથા ભેજન, તથા તેના સદ્દભાગ્ય પ્રત્યે તેઓ ઈર્ષ્યા ભાવથી જોવે છે, તથા પિતાના ભાગ્યની, આત્માની તથા પિતાના પાપકૃત્યની નિદા કરે छ 'म इय" मा ससारमा " पुरे" पूर्वममा " पावगाइ कडाइ" પાપકર્મો કર્યા છે, એનું જ આ ફળ અમારે ભેગવવું પડે છે, એ પ્રમાણે "परिवयता " ilanने ४ता " विमणसो" पाते हीन छन "सोएण डझमाणा" शाथी त " परिभूया" भी “हुति" थाय छ मेरो छरित વસ્તની પ્રાપ્તિ ન થવાના દુખથી નિરતર સ તાપયુક્ત થઈને મનમાં ને મનમાં હદિસ બનીને તેઓ બીજા લોકો દ્વારા તિરસ્કૃત થયા કરે છે, અને દુ ખો सासव्या ४२ छ तथा “ सत्तपरिवज्जिया य” भनथी रहित मेवात लोभा, असहाय खावाने ४.२ ४२४ ०यति द्वारा मनाहीय (तिरस्कृत) या रेतशा “मिप्य" शिवाहिनी २यता am... .....n ran"