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सुदर्शिनी टीफा १०४ सू० १५ अध्ययनोउपसहार जिनः वीरवरनामधेयः-प्ररयातनामा भगवान् श्रीमहावीरोऽपि 'अपभस्स' अनह्मणः 'फलविवाग' फलनिपाक ' सहेसिय' कथितनाश्च 'एय त' एत तत्-उपदर्शित स्वरूपम् ' अषभ ' अब्रह्म-अब्रह्मनामक ' चउत्य' चतुर्वमधर्मद्वार ' सदेवमणुयामुरस्स लोगस्स' सटेवमनुनासुरस्य लोकस्य 'पत्यणिज्ज' प्रार्थनीयम्। एव 'चिरपरिचिय' चिरपरिचितम् , जनादि कालादनुभूयमानम् 'अणुगय ' अनुगत-माणिना पृष्टतोलग्न, दुरन्त-दुःखारसान च । 'त्ति वेमि' इति सीमि, एतद् जम्मृस्वामिन प्रति मुधर्मस्वामि पाक्यम् ॥ सू० १५ ॥ इति श्रीप्रश्नव्याकरणस्य मुदर्शन्यारयाया व्यारवाया हिंसादि पञ्चास्रवद्वारेपु
अदत्तादानाग्य चतुर्थमधर्मद्वार ममाप्तम् ॥३॥ (एव) हम प्रकार का कथन (आहसु) भूनपूर्व तीर्थकर गणधरादिक देवों का है। और इसी प्रकार से अवस्म के फलविपाक उन्ही तीर्थकरो के कहे अनुमार (नायकुलनदणो) सिद्धार्थकुलको आनद देनेवाले (महप्पा जिणो उ ) महात्मा जिनेन्द्र (वीरवरनामधेज्जा) वीरवरनेश्री वर्धमानस्वामी ने भी (अपभस्स) अब्रह्म के (फलविवाग) फलविपाक को (कहेसिय) कहा है (एयतं) यह वह (अवभ) अब्रह्म नाम का (चतुत्य) चतुर्थ अधर्मद्वार ( देवमणुयासुरस्स लोगस्स) देव मनुप्य
और असुर लोक इन सब के यह (पत्थणिज्ज) प्रार्थनीय है, अर्थात् इस अत्रम का ये देवादि सेवन करते हैं। (एव) इस प्रकार यह (चिरपरिचिय) जीवों के पीछे अनादिकाल से लगाटुआ चला आने के कारण (अणुगय) अनुभूयमान है और (दुरत) इसका अवसान (अन्त)से दुरन्त
मा प्रानु उयन “ आहसु" भूतपूर्व तीर्थ ४२ गधाs वोनु छ भने ते शतक मप्रझना सविपाउनु भयन तेती ४२ना उवा प्रभारी "नायकुल नदणो" सिद्धार्थ ना जगन मान हेना२ “महापाजिणो उ" महात्मा लिनेन्द्र " वीरवरनामधेजा" वा२१२ श्री भान वाभीमे ५५ " अपभरस" अप्रहाने। " फलविवाग" पिपा " कहेसिय" स छ “ एयत" माते “ अवम" भम्रा नामनु " चटत्य " याथु मधवार “ देवमणुयासुररस लोगरस" १५ भनुष्य, मने मसु. ते मधाने ते “ पत्थणिज" प्रायनीय छ, मेरो है वाहत अमानुपन २ छ “एव " मा शते ते "चिरपरिचय " ७वानी पाछ मन stuथी यायु आवे छे तेथी " अणुगय " मनुसूय
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