________________
सुदशिनी टीका अ० १ १०९ भावनास्वरूपनिरूपणम् -दीनतापर्जितः अालुणे' आरुण =न्यगृत्तिरहितः, 'अविसाई' परिपाटी'भिक्षालाभो भविष्यति न ये 'त्यादि रिपादनित , तथा-' अपरिततनोगी' अपरितान्तयोगी-अलाभादिषु तन्तनाादि गटवर्जिन', तथा-'जयणघडण करण चरिय पिनयगुणजोगसपउत्ते' यतन घटनकरणचरितपिनयगुणयोगसप्रयुक्तः, तर यतन-प्राप्तेषु सयमयोगेपु उद्यमः, बटन अप्राप्ति सनम-योगमाप्तिचेष्टनम् , एतद्वय कुरुते य स यतनघटनकरणः, तथा-चन्ति =मेरितो विनयो येन स चरितविनयः, तथा गुणयोगेन-समाधिगुणयोगेन सप्रयुक्तो य सः-गुणयोग सप्रयुक्तः, एतेपा र्मधारयः, एताटशो - भिक्ग्व् ' मिथु =साधु 'भिक्खेसगाए' प्रति उसे प्रकटित नहीं होना चाहिये । (अदीणे ) अदीन होना चाहिये दीनता के भाव से रहित रहना चाहिये अपने व्यवहार से दाता के प्रति उसे दीनता का भाव प्रकट नहीं करना चाहिये । ( अफलुणे) अकरण-ओठीवृत्ति से रहित होना चाहिये। उमकी वृत्ति ऐसी न हो कि जिस से वह दाता के दृष्टि मे ओछी प्रतीत हो। ( अविसाई) विपाद से उसे रहित होना चाहिये-भिक्षा का लाभ होगा या नही होगा इस प्रकार का विपाद उसे नहीं करना चाहिये । (अप रिततजोगी) अपरितातयोगी-अलाम आदि की अवस्था मे उसे तनतनाट नहीं करना चाहिये। (जयण-डण-करण-चरिर विनयगुणजोगसपउत्ते ) प्राप्त सयमयोग में उद्यम करना इसका नाम यतन है इस यतन को तथा अप्रास सयमयोग को प्राप्ति मे चेष्ठा करना हमका नाम घटन है, इस पटन को जो करने गला है वह यतन घटन करण है तथा विनयगुण को पहिले से जिग्ने आचरित किया है एव समाधि
RJD नही . अदीणे " महीन रहन-दहीनताना माथी २डित रघु જેઓ–પિતાના વ્યવહારથી દાતા આગળ તે દીનતાને ભાવ પ્રગટ કરે ने नही " अकलुणे" २५४२११-साछी वृत्तिकी २डित युनेस, तेनी वृत्ति मेची नवीन ते हातानी ष्टि गाठी काय, 'अविसाई" તેણે વિષાદ રહિત રહેવું જોઈએ મિલાલાભ મળશે કે નહી એવો વિવાદ तणु ४२३ मे न “अपरिततजोगी " अतियोगी-महान माह भवस्थामा र तेणे तनतनाट नइयो ने " जयण, घडण-करण-चरिय -विनयजोगसपउत्ते" पास सयम योगमा GH. ४२३। तेने 'यतन' ४ છે આ વતનને તથા અપ્રાપ્ત સયમ ગની પ્રાપ્તિની રોષ્ટા કરવી તેને ઘટન કહે છે આ ઘટનને જે કાર છે તે ચતવનકાળ છે તથા વિનયગુણને પહેલેથી જ જેમણે આચર્યો છે તથા સમાધિગુણના વેગથી જે યુક્ત બનેલ