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सुदर्शिनी टीका असू० ३ सत्यस्वरूपनिरूपणम्
मम्=आत्मानमधिरुत्य
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वचन तदध्यात्मवचनम् यथा - ज्ञानस्वरूपोऽयमात्मे त्यादि । इति पोडविध वचनम् । एन=उत्प सत्यम् ' अरहन्तमणुण्गाय अनुज्ञातम् = तीर्थकरोपदिष्ट ' समिक्खिय' समीक्षित = पर्यालोचित सदेव " सजएण ' समतेन= साधुना ' काळे य, काले च अवसरे समागते एन 'वतन्त्र' वक्तव्यम् । भगवदर्भूित स्वयमपर्यालोचित वचन साधुनाऽवसर विना न वक्तव्यमिति भावः । नयोपसारमा = ' इमं च' इत्यादि
'इम च '
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=ग्नन्ततीर्थकरणगधरैः प्रोक्तमिद= प्रत्यक्ष ' पात्रयण ' 'अलिय-विणफरुस - कडुथवलयणपरिचयाए ' अलीकपिशुन-परुप - फदुरुपपचनपरिरक्षणार्थं तत्र अलीकम् असद्भूतार्थं पिशुन-परतो है परन्तु अच्छे रूप वाला है ४ । वचन का सोलहवां भेद वह है, जो अध्यात्म होना है, जो आत्मा को अधिकृत करके बोला जाता है जैसे " यह आत्मा ज्ञान स्वरूप हे " इत्यादि १६ । (एव अरहत मणुष्णाय ) इस प्रकार इन सोलर तरह के वचनों को वोलने में तीर्थकर प्रभु की आज्ञा है । और जो वचन ( समिक्खिय ) पर्यालोचित है अर्थात् अच्छी तरह से विचार करके निकाले गये हो ऐसे वचन ( सजएण) साधु को ( कालम्मि ) अवसर आने पर ( वक्तव्य ) बोलने चाहिये, परन्तु जिन वचनों को बोलने की प्रभु की आज्ञा नही है और जो अपर्यालोचित हो ऐसे वचन साधु को नहीं बोलना चाहिये। अब इसका उपसहार करते हुए सूत्रकार कहते है - ( इमच पावयण) पूर्वकालिक अनत तीर्थकरों के द्वारा कहा हुआ यह प्रत्यक्षीभूत प्रवचन ( अलिय - पिसुणफरूस-कडुवचनलवयणपरिरक्खणट्टयाए ) अलीक, पिशुन, परुष,
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જેમ કે આ દુ શીલ તે છે પણ મુદ્દે રૂપવાળા એ ’ (१६) वयनना સેાળમે ભેદ્ય તે છે કે જે અ યાત્મ હાય છે, જે આત્માને ઉદ્દેશીને મેલાય छे प्रेम " आत्मा ज्ञानवश्य छे " त्याहि, " एव अरइत मणुष्णाय આ રીતે તે મેળ પ્રકારના વચને ખેલવાની તીર્થંકર પ્રભુની આજ્ઞા છે અને જે વચત ' समिस्सिय" पर्यायोचित -भारी गते वियारीने उभ्याરાયા હોય, એવા વચન सजण्ण " साधुमे कालम्मि " અવસર આવતા << वतन्त्र ” ખેલના જોઈએ, પણુ જે વચને ખેલવાની ભગવાનની આજ્ઞા નથી અને જે અપર્યાવાચિત હોય તેવા વચને સાધુએ મેલવા જોઇએ નહીં હવે તેના ઉપમહાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે "" इमच पावयण પૂર્વકાલીન અનત તીર્થંકર દ્વારા દેવાયેલ આ પ્રત્યક્ષીભૂત પ્રવન, 'अल्यि-पिसुणफरूस-कडुय-चवल-वयण परिसराणहुयाए" असी-असत्य, पिशुन, परुष
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