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प्रश्नव्याकरणसूत्रे
नकालिकमिन्द्रियगोचरम् - यथा- 'निरय शास्त्र पठतीत्यादि । तथा-उपनीतादि चतुष्क वचनम्, तत्र - उपनीतरचनम् = गुणारोपणवचनम्, यथा-' रूपनानय मन स्त्री' त्यादि । अपनी वचन = गुणापनयननचनम्, यथा-'दु श्रीरोऽय दुर्वचनो ऽयमित्यादि । उपनीता पनीतरचनम् = कचिद् गुणमारोप्य कोऽपि गुणोऽपनी यते येन वचनेन तदुपनीता पनी त वचनम्, यथा-' रूपवानय किन्तु दुःशीलः ' इत्यादि । एतद्विपर्ययेण अपनी तोपनीतवचनमपि मरति । येन वचनेन पूर्वे कमपि गुणमपनीय पश्चादपर कोऽपि गुण उपनीयते तदपनीतोपनीतवचनम्, यथादुःशीलोsय किन्तुरुपत्रा' नित्यादि । तथा-पोडश वचनम् -' अज्झत्थ' अध्या
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है, जैसे " ऋषभो पभूव" यह वाक्य परोक्ष अर्थको विषय करनेवाला होने से परोक्ष माना जाता है १० । जो वाक्य वर्तमान काल को विषय करता है वह प्रत्यक्ष वाक्य माना जाना है जैसे "मुनिरय शास्त्र पठति" यह प्रत्यक्ष वाक्य है ११ । उपनीतवचन १२, अपनीतअवचन १३, उपनीत पनीतवचन १४ और अपनीतोपनीतवचन १५, इम प्रकार ये उपनीतादि चार है । इनमें जो वचन गुणों का आरोपण करता है वह उपनीत चचन है-जैसे " यह मनस्वी अच्छे रूप वाला है १। जो वचन गुणों का अपनयन करता है वह अपनीत वचन है - जैसे यह दुःशील है २ । जो वचन किसीगुणको आरोपित करके किसी गुण का अपनयन करता है वह उपनीतानीतवचन है, जैसे यह स्पवाला तो है परन्तु दुःशील है ३ | इसी तरह जो किसी गुण का अपनयन करके गुण का आरोपक होता है पर वह अपनीतोपनीतवचन है, जैसे यह दुःशील
" "ऋषल यर्ध गये। " का वाध्य परीक्ष
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होय छे, भडे " ऋषभा बभूत्र' અને વિષય કરનારૂ હાવાથી પરેાક્ષ મનાય છે ૧૦ જે વાચ વર્તમાન કાળને વિષય કરે છે તે પ્રત્યક્ષ મનાય છે “ મુનિ આ શાસ્ત્ર વાચે છે. ૧૧ (१२) उपनीतक्यन, ( 13 ) अपनीतवथन, (१४) उपनीतापनीतवशन भने (૧૫) અપનીતે પનીતવચન એ રીતે ઉપનીતાદિ ચાર વચન છે (१) तेभा ગુણાનુ આરેાપણુ કરનાર વચનને ઉપનીત વચન કહે છે જેમ કે મનસ્વી સારા રૂપવાળે છે ” (२) ने वयन गुणानु अपनयन रे छे ते अपनीत वयन छे, प्रेम डे " मा हुशील छे" (3) ने वयन अर्ध गुणुनु આશપણ કરીને કાઈ ગુણનુ અપનયન કરે છે તે ઉપનીતાપનીત વચન છે, જેમકે “તે રૂપાળા છે પણ્ દુ શીલ છે” એ જ રીતે જે વાય ઈ ગુણુનુ અપનયન કરીને કાઇ ણુનુ આરેપણ કરતુ હાય તે અપનીતેપનીત વચન છે