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सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० १ सत्यस्वरूपनिरूपणम्
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माणुस्साण ' मनुष्याणा कुत्र १ ' बहुए बहु केपु - अनेकेषु ' अवत्थंतरेसु ' अपस्थान्तरेषु = अवस्थाविशेषेषु । तदेवाश्चर्यकारित्वमाह - ' सच्चेण ' सत्येन 'महाममुद्दमज्झे नि ' महासमुद्रमध्येऽपि 'चिह्नति ' तिष्ठन्ति, न निम— ज्जन्ति =न ब्रुडन्ति ' मृढाणिया पि' मूढानीका अपि = मूढा' = नियत दिग्गमन प्रति मूढता प्राप्ता - अनीकाः = नायिकाः येषां ते तथोक्ताः अपि ' पोया' पोता : नाव. ' सच्चेण य ' सत्येन च ' उद्गसम्मम्मि ' वि' उदकसभ्रमेऽपि = आवर्तेऽपि ' न बुड्डति' त्र बुडन्ति, तथा - तत्रस्था जना अपि ' नय मरति ' न च म्रियते, " थाह ' स्ताय =तल च ते ' लम्भति ' लभन्ते । तथा - 'सच्चेण य सत्येन च 'अगणित ममम्ति वि अग्नितभ्रमेऽपि = चालामालास कुठेऽप्यनले 'उज्जुगा ' ऋजुकाः = सत्यवादिनो ' मणुस्सा ' मनुष्या 'न उज्झति' न दह्यन्ते= न दग्धा भवन्ति । तथा - ' मणुस्मा' सत्यवादिनो मनुष्याः ' सच्चेण य '
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है वह (अच्छेरकारग अवत्वतरेसु बहण्सु माणुमाण) अनेक अवस्थाओं में मनुष्यों के लिये आश्चर्य पैदा करने वाला है, जैसे- ( सच्चेण महासमझे विचिट्टति न निमज्जति मूढा णिग्राविपोया) जिननौकाओं के नाकि जन जन नियत दिशाओ में जाने के ज्ञान से विकल हो जाते हैं तब उनकी वे नौकाएँ महासमुद्र के बीच मे भी इस सत्य के बल पर ही तैर जाती है डूबती नही है । ( सच्चेण य उदगमभममि विन वुडति न य मरति, चाह च ते लम्भति ) सत्य के प्रभाव से, जल की भमर में फॅसे हुए भी मनुष्य न डूबते हैं और न मरते हैं प्रत्युत उन्हें वहा भी थाह मिल जाती है । ( सच्चेण य अगणि सभममि वि न उज्झति उज्जुगा मणुस्सा ) सत्य का ही ऐसा प्रभाव है कि जिससे ज्वालाओं से धधकती हुई अग्नि में भी ऋजुक सत्यवादी - मनुष्य जलता
तरेसु बहुसु माणुसाण" अने अवस्थामा मनुष्याने भाटे आश्चर्य येहा अग्नार छे, भट्ठे “ सच्चेण महासमुद्दमज्झे वि चिट्ठति न निमज्जति मूढा णियावि पोया" ने नौायोना नाविजे न्यारे नियत दिशामा भवाना ज्ञानथी રહિત થાય છે ત્યારે તેમની તે નૌકાએ મહાસમુદ્રની વચ્ચે પણ આ સત્યના प्रभावथ डूमती अरडे हे " सच्चेण य उद्गसभम मि विन वुडति न य मरति, थाह च ते लम्भति" सत्यना प्रभावथी पाणीना पभणमा इसायेस મનુષ્ય પણ ડૂમતા નથી કે મરતા નથી એટલે કે ત્યા પણ તેને ઋણુ મળી ये" सच्चेण य अगणिसभममि विन डज्झति उज्जुगा मणुस्सा " सत्यना જ એવેા પ્રભાવ છે કે જ્વાળાએ વડે પ્રજ્વલિત અગ્નિમા ઋજીક-સત્યવાદી