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मनग्याकरणम् असम्यक् श्रुतम् , तया-'अमुणिय ' अज्ञातम्-प्रमभ्यगजातम् , एवाश सत्यम पि न वक्तव्पमिति भावः। पुनः कीदृश सत्य न रक्तव्यम् ? इत्याह--'अप्पगो थपणा' आत्मनः स्तरना-प्रशसा यत्र मरेनन्, सन्तुतिस्प यत्सत्य तर वक्तव्य मित्यर्थः । तथा-परेसिं निंदा' परेपा निन्दा- अन्येपा पिये सत्याऽपि नि न्दा यस्मिन् भवेतन वक्तव्यमिति भारः, कथम् ? उत्याह--'न तमि महावि' न समसि मेधापी-अपूर्वश्रुतदृष्टग्रहणशक्तियुक्तः माशो मेधारीत्युन्यते, एनाश स्व नासि तया-'ण तसि धण्गो' नत्वमसि धन्या-धनान् , धन्पपादपायं वा, 'ण तसि पियधम्मो' न बमामि मियधर्माधर्मपरायणाः, तथा-'न तसि कुलीनो' न त्वमसि कुलीना-उन्चकुलीनचठमातः, 'न उमि दागबई' टन होता हो वे दुर्दष्ट वचन हैं और (दुस्सुय) जो अच्छी तरह से सुने गये हो वे दुःश्रुत वचन हैं, तथा (अमुणिय) जो अच्छी तरह से जानने में नहीं आये हो वे असम्यक ज्ञात वचन है, इन दुईटादि वचनों को चाहे ये वचन सत्य मी हो तो भी नहीं बोलना चाहिये । (अप्पणो धवगा परेमि निंदा) इसी तरह जिन सत्यवचनों में आत्मप्रशसाआत्मश्लाघा भरी होवे, और जिन सत्ययचनों में पर की निंदा होती हो वे सत्यवचन भी नहीं बोलना चाहिये, किस प्रकार नहीं बोलना चाहिये सो कहते हैं-(न तसी मेहावी) तुम मेधावी नहीं हो, अर्थात् जो व्यक्ति अपूर्व, अश्रुत एव अदृष्ट पदार्थ को ग्रहण करने की शक्ति से युक्त होता है उसका नाम मेघावी है ऐसे मेघावी तुम नही हो, तथा (ण तसि धण्णो) तुम धनवान् या धन्यवाद के पात्र नही हो, (न तसि पियधम्मो) तुम प्रियदर्माधर्मपरायण-नहीं हो, (न तसिभभ भयो पता लय ते या 2 पयन छ भने " दुस्सुय ' रे म२२२ समायु न डाय श्रुतपयन उवाय छ, तथा “ अमुणिय" જે બરાબર જાણવામાં આવ્યું ન હોય તેના વિષે વચન બોલવા તે અસભ્ય જ્ઞાત વચન છે, એ દુષ્ટ આદિ વચને સત્ય હોય તે પણ બાલવા જોઈએ नहीं "अप्पणो थवणा परसेनिंदा " से प्रभारी सत्य वचनामा मात्मप्रशसा આત્મશ્લાઘા-ભરી હેય તથા જે સત્ય વચનેમા બીજાની નિદા થતી હોય તે સત્ય વચન પણ બોલવા જોઈએ નહીં કઈ રીતે બોલવા ન જોઈએ તે હવે
-"न तसि मेहावी" तमे भेधावी नथा यति अपू, मश्रुत माने અદૃષ્ટ પદાર્થને ગ્રહણ કરવાની શક્તિવાળી હોય છે તેને મેધાવી કહે છે તથા " ण त सि धण्णो" तमे धनवान या धन्यवाह पात्र नथी “न त सि पियधम्मो" तमे घभ ५२या नथी, “न त सि कलीणो" र २ नयाँ