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सुदशिनी टीका अ० २ सू० १ सत्यस्वरूपनिरूपणम् " सच्च हिय सयामिह सतो मुगउ गुणा पयत्या पा" छाया-सत्य हित सतामिह, सन्तो मुनयो गुणाः पदार्या वा" इति, सत्सु तिष्ठतीति वा, सत्यम् , सत्यच तद्वचन च सत्याचनम् , परमाण नागपरायण हितकर सुखावहमनुद्वेगजनक मुधावत्स्वादीय वचन सत्यवचनमित्यर्थः । कीटश सत्यवचनम् ? तदाह- 'सुद्ध' शुद्ध-निटोपलाद , 'मुचिर 'शुचिक पनिनत्वात् , 'सिव' शिव-मोक्षजनक त्वाम् , ' सुनाय' मुजात-शुभविक्षया समुत्पन्नत्वात् , 'मुभासिय सुभापितम्
"सच्च यि सयामिछ, सतो मुणउ गुणा पयत्या वा"।
सतों का हित जिससे होता है वह सत्य मुनि होते हैं या गुण अथवा पदार्थ होते हैं। सत्य की दुमरी व्युत्पत्ति इस प्रकार से भी है " सत्सु तिष्ठनीति सत्य, सत्य च तद्वचन च सत्यवचन" जो वचन सज्जन पुरुषों में रहता हैं वह नलवचन है। यह सत्यवचन पर के प्राणो के वाण करने में परायण होता है, सय के हितकारी होता है, मुखदायक होता है, उद्वेगजनक नहीं होता है, और सुधा के जैसे स्वादीय-अत्यत मधुर होता है । (सुद्ध ) सत्यवचन मे किसी भी प्रकार का दोष नही होता है-अत' निर्दीप होने से यह शुद्ध है (सु इय) इसमें किसी भी प्रकार की अपवित्रता नहीं होती है अतः यह पवित्र होने से शुचिक है। (सिव) इस वचन से जीवों को मोक्ष की प्राप्ति होती है-इसलिये मोक्षजनक होने से यह शिवरूप है। (सुजाय ) हार्दिक शुभ भावना से प्रेरित होकर ही ऐसा वचन बोला जाता है
"सच्च हि य सयामिह, सतो मुगउ गुणा पयत्या वा"
તેનું હિત જેનાથી થાય છે તે સત્ય છે, મુનિ અથવા ગુણ અથવા પદાર્થ से मारना सत्य छ सत्यनी भी व्युत्पत्ति या प्रमाणे ५ -" सत्सु तिष्ठतीति सत्य, सत्य च तद्वच च सत्यपचन " सन पुरुषोभा २ क्यन રહે છે તે સત્યવચન છે તે સત્યવચન અન્યના પ્રાણેનું રક્ષણ કરવાને સમર્થ હોય છે, બધાને માટે હિતકારી હોય છે, સુખાયક હોય છે, ઉદ્વેગજનક सातु नथी, अमृत २७ अतिशय भी डाय छे “सुद्ध " सत्यवयनमा ५५ प्रारना होष जात नथा, तेथी निषि पाथी ते शुद्ध छे “सुइय " તેમાં કોઈપણ પ્રકારની અપવિત્રતા હતી નથી તેથી તે પવિત્ર હોવાથી શચિક छ " सिव" क्यनथी छवाने भाक्षनी प्राप्ति थाय छे, तेथी भावना डापायी ते शिव३५ छे “ सुजाय " शुम लानाथ रान मेव વચન બેલાય છે તેથી શુભ ભાવનામાથી ઉદ્ધવેલ હોવાથી તે સુજાત છે.