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प्रश्नध्याकरणसूत्रे तर गुरूपदेशः, कर्मक्षयोपशमादि पाहयाभ्यन्तर कारणमस्या:प्रमत्तभोगापाणव्यप रोपगलक्षणहिंसामतिपक्षरुप सम्पम् , स्वर्गापवर्गमाप्तितिलाण च कार्यम् , उति । तथा-'ओहिनिणेहि ' अधिजिना निशिष्टायधिशानिमिः 'रिणाया 'विज्ञाताभेदप्रभेदैविदिता, तथा ' उज्जुमईहिंदि मजुमतिभिरपि-मनन मतिः-सवेदन मित्यर्थः, ज्वीसामान्यग्राहिणी मति दिर्यपा ते ऋजुमतया अर्धततीयाडगुल न्यूनमनुष्यक्षेत्राति सज्ञि पञ्चेन्द्रियमनोदव्यप्रत्यक्षीकरणहमनःपर्यायज्ञानमेद चन्तस्तैरपि, 'दिवा' दृष्टा, वथा-'विउलमईहिं ' विपुलमतिभिः पर्यायशवोपेता चिन्तनीय घटादिवस्तुविशेषग्राहिणी मति उद्धि र्येपा ते पिपुलमतयस्तैः निहितातरह देसी है-निश्चित की है। उन्हो ने इसके बाद और आभ्यन्तर कारण गुरुपदेश, कर्मक्षयोपशम आदि कहे हैं। इसका स्वरूपप्रमत्तयोग से जो प्राणव्यपरोपगरूप हिंसा का स्वरूप है उससे विपरीत स्वरूप प्रकट किया है । तथा स्वर्ग और अपवर्ग की प्राप्ति होना इसका कार्य कहा है। (ओहिजिणेहि विण्णाया) विशिष्ट अवधि ज्ञानियों द्वारा यह अहिंसा भगवती भेद प्रभेदों सहित विदित हुई है। तथा (उज्जुमईहि विदिट्ठा) जुमति मन. पर्यय ज्ञानियो द्वारा यह प्रत्यक्ष रूप में देखी गई है। जो विषय को सामान्यरूप से जानता है वह ऋजुमतिमन. पर्यय है । यहा पर ऐसी आशका नहीं करना चाहिये कि " जय ऋजुमति सामान्यग्राही है तप तो वह दर्शन ही हुआ उसे ज्ञान क्यों कहा क्योकि यह सामान्यगाही है। इसका तात्पर्य इतना ही है कि वह विशेपोको जानता है पर विपुलमति जितने विशेषों को नहीं जानता। अर्धतृतीयअड्गुल न्यून-अर्थात् ढाई अंगुल कम मनुष्य क्षेत्र में रहे ન્તર કારણ ગુરૂપદે, કર્મપિશમ આદિ બતાવેલ છે તેનું સ્વરૂપ-પ્રયત્ત
ગથી જે પ્રાણ હરનાર હિસાનું સ્વરૂપ છે તેના કરતા ઉલટ સ્વરૂપ પ્રગટ કરેલ છે તથા સ્વર્ગ અને અપવર્ગની પ્રાપ્તિ થવી તે તેનું કાર્ય કહેલ છે " ओहिजिणेहि विण्णाया" विशिष्ट अधिज्ञानीयाद्वारा भगवती मडिसा लेह, प्रमेह सहित सभरपामा मावेश छ तथा " उज्जुमईहिं वि दिदा" नुमति मन ययज्ञानीया द्वारा ते पत्यक्ष उपेलवामा मावल છે જે વિષયને સામાન્ય રીતે જાણે છે તે બાજુમતિ અને પર્યાય છે અહી એવી શકી ન કરવી જોઈએ કે “જે મજુમતિ સામાન્યગ્રાહી છે તે તે
દર્શન” જ ગણાય તેને જ્ઞાન કેમ કહ્યું ? કારણ કે તે સામાન્યગ્રાહી છે” તેને ભાવાર્થ એટલે જ છે કે તે વિશેષેને જાણે છે પણ વિપુલમતિ જેટલા विशयाने तशुतो नथी “अर्धतृतीयअड्गुलन्यून" सेट मढी मागण