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सुदशिनी टीका अ १ सू० ५ अहिंसापालफर्तव्यनिरूपणम् गवेसियव्य ' भैक्ष गवेपितव्यम् । तथा 'नवि भेसणाए' नापि भीपणया= दायकभयोत्पादनया, 'न वि तज्जणाए 'नापि तर्जनया-" ज्ञास्यसि रे दुष्ट ! इत्यादि तिरस्काररूपया 'न वि तालणाए' नापि ताडना-चपेटादिदानरूपया, समुदायेनोन्यते--'न पि भेसणतज्जणतालणाए' नापि भीषणतर्जन ताउनया भैक्ष गवे पितव्यम् । तथा 'नवि गारवेण' नापि गोरवेण 'अह क्षत्रियोऽस्मीत्यायभिमानेन, 'न वि कुहणाए ' नापि कुहनया क्रोधेन, न वि व णिमगयाए' नापि बनीपकतया-पाचश्यत्त्या, समुदायेनाह-'न वि गारवकुइणाणिमगयाए' नापि गौरव कोधवनीपकतया भैक्ष गवेपितव्यम् । तथा'न वि मित्तयाए' नापि मिनतया-दायकेन सह मैनीभानोत्पादनेन, 'न वि पस्थणाए' नापि प्रार्थनया, "यूय दायका , याचकरक्षकाः वय याचका , फरना साधु को योग्य नहीं है। इसी तरह (न वि भेसणाण, नवितजणाए, न वि तालणाए, न वि भेसण-तजण-तालणाए भिक्ख गवेसियन्त्र) दायक (दाता ) को भय का उत्पादन करके, “रे दुष्ट मैं तुझे बतलाऊँगा" इस प्रकार दाता का तिरस्कार करके, दायक (दाता) को मोरपीट करके, तथा एक ही साथ एक ही दायक ( दाता) के साथ भीषगा, तजेना और ताडना करके भिक्षा की गवेपणा नहीं करनी चाहिये । तथा-(नवि गारवेण न वि कुणाए, न वि वणीमगयाए नवि गारवाहणवणीमगयाए भिक्ख गवेसियन्व) ' मैं क्षत्रिय ह" इत्यादि अभिमान रूप गौरव से, क्रोध से, एव याचक वृत्ति से, तथा एक ही साथ गौरव क्रोध एव याचक वृत्ति से भी भिक्षा की गवेपणा नहीं करनी चाहिये । ( न वि मित्तयाए न वि पत्यणाए न वि सेवणाए न वि मित्तय-पत्यण-सेवणाए भिक्ख गवेसियन्च ) तथा न वि तज्जणाए, न वि तालणाए, न वि भेसण-तज्जण-तालणाए मिक्स गवेसियय" हाताने लय तापीने “रे हुएट इतने मतावी. " से રીતે દાતાને તિરસ્કાર કરીને, દાતાને માર મારીને તથા એક સાથે દાતા પ્રત્યે ભીષણ તર્જન અને તાડના કરીને ભિક્ષાની ગવેષણ કરવી જોઈએ નહી. तथा “ न वि गारवेण, न वि कुणाए, न वि वणीमगयाए न वि गारवकुणपणीमगयाए भिक्स गवेसियव्य " " क्षत्रीय छु" माहि अभिमान३५ ગૌરવથી, ક્રોધથી, અને યાચક વૃત્તિથી તથા એક સાથે ગૌરવ, કોઇ અને याय वृत्तिथी ५५ मिक्षानो गवेष। ७२वी मे नही " न वि मित्तयाए, म वि पत्थणाए, न वि सेवणाए, न वि मित्तय-पत्थण-सेवणाए भिक्स गवे सियव्य " तथा हातानी साथै भित्र शन, “मा५ हात छ।, यायाना