________________
६२२
प्रभम्याकरण
मालिन्यरहिता, असक्लिष्टा विशुद्धपमानमन. परिणामयुक्ता, निर्यणा=अक्षता या चारित्रभावना तया देतुभूतया 'अगिए' महिंसकः - सभावनाया अहिंसायाः परिपालकत्वात्, 'समय' सयतः सम्यग्जीन रक्षायतनोपवत्यात्, 'सुसाहू' साधु - मोक्षसाधको मुनिर्भवति ॥ मृ० ६ ॥
तथा विशुद्धयमान मनःपरिणाम से युक्त ऐसी हेतुभूत अखड चारित्र भावना के प्रभाव से (अहिमए / अहिंसक होता है, अर्थात् भावनामहित अहिंसा का परिपालक होने के कारण वह हिमात्ति से रहित होता है तथा ( स ) अच्छी तरह से जीव रक्षा की यतना में उत होने के कारण सजत होता है । और (सुमार ) ऐसा होने के कारण ही वह साधु-सच्चा साधु-मोक्ष साधक मुनि-शेता है ।
भावार्थ - इम सूत्र छारो सूत्रकार ने अरिमावत की रक्षा और स्थिरता के निमित्त पांच भावनाओं में से ईर्ष्या समिति नामकी प्रथम भावना कही हे, । इस भावना में उन्हों ने यह ree किया है कि अहिंसाव्रत का आराधक प्राणी यदि मानना का निमित्त नहीं मिलता है तो उस व्रत का गहराई के साथ परिपालन नहीं हो सकता है। अहिंसा आदि व्रतों के रंग में आत्मा को रंग देनेवाली ये भावनाए ही है । इसलिये सच्चे अर्थ मे अहिंसक बनने के लिये मुनि को सबसे पहिले ईय समिति का पालन करना चाहिये । इस समिति के पालन करने से
भावणाए
" अशल-भक्षिता रहित तथा विशुद्ध भन परिणामधीयुक्त वी हेतुभूत अक्षत-थारित्रलावन ना प्रभावथी ' अहिसए" अहिसा थाय छे, એટલે કે ભાવનાપૂર્વક અહિંસાના પરિપાલક હોવાથી તે ડિસાવૃત્તિથી રહિત भने छे तथा " सजए " सारी रीते व रक्षानी यतनाभा तत्पर होवाने भराये सयत थाय छे भने “ सुसाहू " सेवा थवाने जर ते सुसाधु-साथ સાધુ-મેક્ષ સાધક મુનિ-થાય છે
ભાવાર્થ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે અહિંસા જ્ઞતની રક્ષા અને સ્થિરતાને માટે જે પાચ ભાવના છે તેમાની ઇૉર્સમતિ નામની પહેલી ભાવના ખતાવી છે. આ ભાવનામા તેમણે એ પ્રગટ કર્યુ છે કે અહિં સા વ્રતના આરાધક પ્રાણીને જે ભાવનાનુ નિમિત્ત ન મળે તે તે વ્રતનુ સૂક્ષ્મ રીતે પાલન થઈ શકતુ નથી અહિંસા આદિ તેાના રગમા આત્માને રંગી દેનારી આ ભાવ નાઆ જ છે તેથી માચા અર્થમા અહિંસક બનવાને માટે મુનિએ સૌથી પહેલા ર્માંસમિતિનુ પાલન કરવું જોઈએ. આ સમિતિનુ પાલન કરવાથી ત્રસ