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सुवशिनी टीका अ० १ सू० ५ अहिंसापालककर्तव्यनिरूपणम ६०१ रक्षणशासनेन — भित्तस' भैक्ष ‘गवेसियब ' गवेपितव्यम् । तथा-'न वि वदणाए' नापि वन्दनया-नापि प्रशसया “दिग्व्यापिनो भवद्गुणाः पूर्वश्रुताः, परमद्यभवानस्माभि'प्रत्यक्षीकृतः' इत्येन रूपया, बन्दनगन्दोऽत्र प्रशसावाचकः, 'न नि माणणया' नापि माननया आसनादि प्रदानेन ' न विपूयणाए ' नापि पूजनया-दायकाय किंचिद्वस्तुप्रदानरूपया एतदेव समुदायेनाह-'न वि पदणमागणपूयणाए' नापि वन्दनमाननपूजनया 'भिक्तख गवेसियव्य ' भैक्ष गवेपित. आदि को पढ़ा दगा तो मुझे इसके यहां से भिक्षा मिलती रहेगी" ऐसे विचार से जो भिक्षा प्राप्त हो तो वह भिक्षा भी मुनि को नहीं लेनी चाहिये । इसी तरह जिस भिक्षा की प्राप्ति मे युगपत् दभन, रक्षण और शासन इनका प्रयोग करना पड़ता हो उस तरह से भी मुनि को निक्षा की गवेपा नहीं करनी चाहिये । तथा (न वि वदणाण, न विमाणणाण, न वि प्रयणाण, न वि वदणमागणपूषणाए, न वि हीलणाए, न वि निंदणाए, न वि गरिह गाए, नवि हीलगा निंदणा गरिहणाए भिक्ख गवेसियन्त्र) जिस भिक्षा की गवेपणा करने में साधु को दाता की " आप की गुणराजि दिगन्ततक फैली हुई है- आपकी प्रशंसा मैं ने पहिले से ही सुन रखी है परन्तु साक्षात्कार आप का आज ही हुआ है। इस प्रकार से बदना-प्रशंसा करनी पडे ऐसी भिक्षा साधु को कल्प्य नहीं है । यहा वदन शब्द प्रशसार्थक है । जिस भिक्षा की प्राप्ति में दाता को आमन आदि का प्रदान पूर्वक सन्मान करके अर्थात् आसनादि प्रदान द्वारा दाताको प्रसन्न करके भिक्षा की प्राप्ति करनी पडे-ऐसी भिक्षा भी साधु को लेना उचित नहीं है। इसी तरह दाता તેને ત્યાથી ભિક્ષા મળ્યા કરશે” એવા વિચારથી જે ભિક્ષા પ્રાપ્ત થાય તે ભિક્ષા પણ સાધુને કપે નહી વળી જે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિમાં યુગપત,દભ, રક્ષણ અને શાસનને પ્રગ २। ५३ से ४ानी लिक्षानी प्राप्ति भुनिने ४८पे नही तथा (न वि वद णाए, न विमाणणाए, न वि पूरणाए, न व दणमाणणपूणयाणए, न वि हीलणाए न वि नि दणाए, न वि गरिहणाए न वि हिलणा निंदणा गरिहणाए भिक्ख गवे सियव्व) २ मिक्षानी प्राप्ति माटे साधुन हातानी मानी शुशि हित સુધી વ્યાપેલ છે, મે આપની પ્રશંસા પહેલેથી જ સાભળી હતી પણ આપને સાક્ષાત્કાર તે આજે જ થ” એ રીતે વદણ-પ્રાસા કરવી પડે એવી ભિક્ષા સાધુને કલ્પ નહી અહી વદન શબ્દ પ્રશમાના અર્થમાં વપરાય છે આસનાદિ આપીને દાતાનું સન્માન કરવું પડે અથવા તે રીતે તેમને પ્રસન્ન કરવા પડે તે પ્રકારની ભિક્ષા પણું સાધુને કતપે નહી વળી દાતાને પિતાની તરફથી प्र० ७७