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सुदशिशी टीका अ० ५ सू०५ परिग्रहो यत्फल ददाति ननिरूपणाम् महन्भओ वहुरयप्पगाढो दारुणो ककसो, असाओ वाससहस्सेहि मुच्चइ, न य अवेदइत्ता अत्थि हु मोक्खोत्ति एवमाहसु नायकुलनदणो महप्पा जिणो वीरवरनामधेजो कहसि य परिग्गहस्स फलविवाग। एसो सो परिग्गहों पचमो नियमा नाणामणिकणगरयणमहरिह० जीव इमस्स मोरखवरमुत्तिमग्गस्स फलिहभूओ ॥ सू० ५॥
॥ चरिम अहम्मदार समत्त । 'टीका-परलोगम्मि ' इत्यादि--
जीवा माणिनः लोभनससनिविद्या' लोभवशसनिविष्टाः लोभवशेन परिग्रहे सनिविष्टा =अभिनिविष्टाः लोभवशपरिग्रहग्रहिलाः 'परलोगम्मि' परलोके जन्मान्तरविपये चकारात् इहलोके च 'नहा' नष्टाः-पिनष्टाः सुगतिनाशात् मत्पथभ्रशाच, तथा 'तम' तम =अशानान्यकार ' परिहा' प्रविष्टा 'महया मोहमोहि
पूर्व में 'ये यथा कुर्वन्ति ' यह द्वार कहा अर सूत्रकार परिग्रह जिस प्रकार का फल देता है इस विषय को कहते है-'परलोगम्मि य' इलादि।
टीकार्थ-(लोभवससनिविट्ठा जीवा ) लोम के वश से परिग्रह के वशवती यने हुए जीव ( परलोगम्मि य नट्ठा) अपने परभव को भी नष्ट कर टालते है । अर्थात् उनका यह लोक तो नष्ट हो ही जाता है, साथ मे परमर भी उनका बीगढ़ जाता है । क्यों कि ऐसे जीयों को सुगति की प्राप्ति नहीं होती है, तथा इसभव में वे मत्पय से विहीन घने रहते है। तथा (तमपविट्ठा ) अज्ञानरूप अधकार में प्रविष्ट होकर
माग "ये यथा कुर्वन्ति " ते अन्तार व्यु वे सूत्रता परिया उषु ३ मापे थे, ते तावे -" परलोगम्मिय" त्यहि
हाथ-लोभवससनिविदा जापा" सामने अधीन थ/ने पनिडने तामे थयेसा ॥ " परलोगम्मि य नद्वा" पोताना ५२सपने पर नए की નાખે છે, એટલે કે તેમને આ લેડ બરબાદ થાય છે જ, પણ સાથે સાથે તેમને પરભવ પણ બગડે છે કારણ કે એવા ને સુગતિ પ્રાપ્ત થતી નથી, मन मा सभा तेसो मन्माया हे तथा “ तमपविट्ठा" मशान