________________
सुदर्शिनी टीका भ०५ सू० ५ अध्ययनोपसंहार
५४२ पद्ध-स्वात्मपदेगेषु स लेपित, निकाचित दृढ़त्तर बद्धम्-उपगमनादिश्रणानामविपयीकृत कर्म यैस्ते तयोक्ताः, नग. गुस्णा बहुविधम् अनेकमकारम्नविविधहेतुप्टान्तपूर्वकम् अनुगिष्टमपि-उपदिष्टमपिधम-युवचारिवलक्षण श्रृण्वन्ति किन्तु न च कुर्वन्ति न च समाचरन्ति ॥३॥
'जे' ये मनु या सर्पद खाना-जन्मजरामरगादिरूपाणा 'पिरेयण ' विरेचनकोप्टशुदिपविरेचनमिरविरेचन निवारक ' गुणमहुर' गुणमधुर गुणैःआत्मविकासिगुणैर्मधुर-मिष्टम् , एतादृश 'जिणायण ' जिनाचनम्वचनजिनवचनरूपम् ' आमह ' पोपध 'मुहा' मुधा-उपकारसुद्धया 'ज' यत् 'नेन्छ' नेउन्निम्नपिपन्ति ते 'मि काउ' किं कर्नु 'समा ' शक्ता=समर्था भवन्ति प्यमि पाटष्टि होते हैं विवेक बुद्धिसे विहीन होते हैं तथा (पनिकाइयकम्मा) निकाचित कर्मों का यर किए हुए होते हैं, ऐसे मनुष्य यविह (अणुदिदृषि) गुरुओं द्वारा विविधहेतु तथा दृष्टान्त आदिसे नुत प्रकारसे सामनाये गये भी श्रुत चारित्ररूप (धम्न) धर्मको (सुणति) सुन तोलेते है परन्तु (न य करेंति) उसे अपने आचरण मे नही लाते हैं ॥३॥ रोगी होकर भी जो रोग निवारणार्य ओपधि का पान नहीं करते हैं तो जैसे वे अपने रोग को दूर करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं इसी तरह (ये) जो ससारी प्राणी ( सव्व दुक्माण विरेयण (जरा, मरण आदि समस्त दुग्यों को जडमूल से उखाड देने वाले तथा (गुणमहुर) आत्मविकासी गुणो से मीठे ऐसे (जिणवयण) जिनेन्द्र प्रमु के वचन रूप (ओसह) औषध को (मुहा) उपकार बुद्धि से (पाउ नेच्छ5 ) नहीं पाते हैं वे (किं कार सका।) कुछ भी करने के लिये समर्थ नहीं हो सकते हैं।
_“जे नरा मिन्छादिदी आदीया"२ मनुष्यो मिथ्याट वामा डाय , विषमुद्धि विनाना हाय छ तथा "पद्धनिकाइयक्रम्मा" नियित भना । पापा हाय छ, सवा मनुष्य। "बहुविह अणुदिपि" गुरुया દ્વારા વિવિધ હેતુ તથા દુષ્ટાતા આદિ દ્વારા બહુજ સમજાવવામાં આવે છે छत पशु श्रुतयारित्र३५ 'धम्म " धनु “सुणति " श्रq तो रे ), ५५ " न य करे ति" ५ ते घोताना मायरामा उतरता नयी ॥3॥
જેમ રેગો માણસ રોગના નિવારણ માટે ઔષધિ ન પીવે તે તેને शश २ ४२वाने शतिमान था नथी, से प्रभारी “ये" ससारी " सम्बदुस्साणविरेयण" ०८२१, भ२५ मा सामान निभूज २नार तथा “गुणमहुर” मामविासी गुणाथी मधु२ सेवा " जिणग्यण "नेन्द्र समानता क्यन३५ " ओसह " गोषधने “मुहा" 6५२ मुद्धिथी “पाउ मेच्छह " प्रास उता नथी, तशा " किं काउसका " ४४ ५४ ४२वाने समय