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सुदर्शिनी टीका अ०५ सू० ५ अध्ययनोपसंहार पद्ध-स्वात्मप्रदेगेषु म लेपित, निकाचित-दृढ़त्तर पद्धम्-उपशमनादिकरणानामविपयीकृत म येस्ते तथोक्ता., नग. गुरुणा बहुविधम् अनेकमकारम्-विविधहेतुदृप्टान्तपूर्वकम् अनुशिष्टमपि-उपदिष्टमपिधर्म-श्रुतचारिनलक्षण श्रृण्वन्ति किन्तु न च कुर्वन्ति न च समाचरन्ति ॥ ३ ॥
'जे' ये मनुन्या सर्वदु खाना-जन्मजरामरणादिरूपागा 'पिरेयण ' विरेचन-कोप्ठशुद्धिरूपविरेचनमिरविरेचन निवारक 'गुणमहुर' गुणमधुर गुणे = आत्मविकासिगुणैर्मधुर-मिष्टम् , एतादृश 'जिगरयण 'जिनपचनबचन-जिनवचनरूपम् ' आसह ' ओपध ' मुहा' मुधा-उपकारसुद्धया 'ज' यत् 'नेच्छई' नेन्छन्ति नपिरन्ति ते 'किं काउ' किं कर्तुं 'सका ' शक्ताः समर्था भवन्ति प्यमि यादृष्टि होते हैं विवेक बुद्धि से विहीन होते हैं तथा (बद्धनिकाय कम्मा) निकाचित कर्मो का घर किए हए होते हैं, ऐसे मनुष्य बत्तविह (अणुदिपि) गुरुओं द्वारा विविधहेतु तथा दृष्टान्त आदिसे नहत प्रकारसे सामझाये गये भी श्रुत चारित्ररूप (धम्म) धर्मको (सुणति) सुन तो लेते है परन्तु (न य करेंति ) उसे अपने आचरण मे नही लाते हैं ॥३।। रोगी होकर भी जो रोग निवारणार्थ ओपधि का पान नही करते है तो जैसे वे अपने रोग को दूर करने में समर्थ नहीं हो सकते है इसी तरह (2) जो ससारी प्राणी (सव्व दुक्वाण विरेयण (जरा, मरण आदि समस्त दुग्यो को जड़मूल से उखाड देने वाले तथा (गुणमहुर) आत्मविकासी गुणो से मीठे ऐसे (जिणवयण) जिनेन्द्र प्रभु के वचन रूप (ओसह )
औपध को (मुहा) उपकार बुद्धि से (पाउ नेच्छ३) नहीं पाते हैं वे ( मार सका) कुछ भी करने के लिये समर्थ नहीं हो सकते हैं।
जे नरा मिच्छादिट्ठी अनुीया" रे मनुष्यो मिथ्याल्टि वाणा हाय, विमुद्धि विनाना डाय छे तथा " बद्धनिकाइयकम्मा " निथित उभाना ५५ पाय जय छ, मेवा मनुष्यो " बहुविह अणुदिपि" शुरुमा દ્વારા વિવિધ હેતુ તથા દૃષ્ટાતા આદિ દ્વારા બહુજ સમજાવવામાં આવે છે छ॥ ५५ श्रुतयारित्र३५ “धम्म" धनु “सुणति " Oq तो रे प "न य करे ति" ५ तन पाताना मायरमा उतरता नयी ॥3॥
જેમ રોગી માણસ રોગના નિવારણ માટે ઔષધિ ન પીવે તે તેને शश १२ ४२वाने शतिभान यतो नथी, को प्रमाणे “ये"२ ससाश " सयदुक्साणविरेयण " ८२, भ२५] माहि सामान निभूण ४२नार तवा "गुणमहर" मामविलासी गुपथी मधु२ मेवा " जिणपयण" लिनेन्द्र लापानना क्यन३५ " ओसह " औषधने “मुहा" ५२ मुद्धिथी “पाउ नेच्छद" प्रास उता नथी, तभा “कि काउसका" ४४ ५९ ४२वाने समय
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