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प्रमण्याकरण गवेपण तन परायणा' परसम्पत्तिमोगामिलापया इत्यर्थ , 'रागा' वराका:दीनाः 'अकामिया' अकामिया भनिन्च्याऽपि 'रिणितिपय' विनयन्ति दुःख-दुख माप्नुवन्ति तथा 'समुह । णिचुर उपलभति' नेवमुम्ब नै नियुति मनः शान्तिमुपलभन्ते मानुगन्ति, ते के ? इत्याह-'अच्चतविउ लदुक्ससयसपलिता' अत्यन्तपिपुलदुमातमम्मदीप्ताः अत्यन्तपिपुलम्मति निस्तीर्ण यद् दुसरात तेन सम्प्रदीप्तासनता. 'परम्म दहि-जे परिया' परस्य द्रव्येषु ये भपिरता: नितिमावरहिताम्तेज परन च नेर मुग्न नेव शान्ति चोपलभन्ते इति सम्बन्धः ० २० ॥ पुष्प आदि पदार्थ भोग और जो चार २ भोगने में आते है ऐसे गृह वस्त्र आदि पदार्थ उपभोग है । ( परागा ) ये सदा दीनावस्था सपा होते है । (अकामियाए ) इनकी यह अमिलापा नहीं होती है की हम दुःख भोगे परन्तु इन्हे विना इच्छा के भी (विणिहुति दुःक्ख) दुःख सहना पडता है। इन्हे (णे सुरणेचणिपुर उवलभति) जीवनभर कभी भी सुख नहीं मिलता और न कभी निवृत्ति मनका शाति ही इन्हे प्रास होती है । कारण की ये ( अच्चत विउलदुक्खसयसपलित्ता) अत्यत विपुल सैकडो दुःखों से सतप्त होते रहते हैं। इन दुःखो से भी सतप्त होने का कारण यह है कि ये (परस्स दवेहि जे अविरया) परके द्रव्य को अपहरण करने रूप कुकृत्य से वितिभाव धारण करने से रहित होते है । इसी कारण इन विचारों को न सुख मिलता है और न शाति ही मिलती है । सू० २० ॥ એક વાર ભોગવવામાં આવે છે એવા આહાર પુષ્પ આદિ પદાર્થ ભાગ ગણાય છે, અને જે વર વાર ભગવાય છે એવા ઘર, વસ્ત્ર આદિ પદાર્થોને अपना 'वरागा" तेसो भैश हीन शामा २९ छ, “ अकामियाए" તેમને દુ ખ ગવવાની ઈચ્છા હતી નથી, પણ તેમને ઈચ્છયા વિના પણ "विणिहुति दुक्ख" म सहन ४२१५ तेभने “णेच सुह णेव णिव्वुइ उवल भति" मासु न ही ५ सुभ भातु नथी, अन तेमनी निवृत्ति-(मननी शाति) पशु प्राप्त थती नथी, ४२१ तो चतविउलदुक्ससय सपलित्ता" सत्यत विधुद, से 31 माथी हुयी थया रे , ये माथी पय भी थवानु २५ मे छे उ ते "परस्स दव्वेहिं जे अवरिया" પરધનનું અપહરણ કરવા ૩૫ કુકૃત્યથી વિરકત થઈ શક્તા નથી, તે કારણે તે બિચારાઓને સુખ મળતુ નથી અને શાતિ પણ મળતી નથી | સૂત્ર ૨૦