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प्राम्याकरण पीवर पउहसठिय सुसिलिह विसिट्ठलहसुणिचिय धणथिरसु विद्धसधीपुरवरफलिहवंटिय भुजा ॥ सू० १०॥ ____टोका:- भुज्जो' भृया पुनरपि ' उत्तरहरुदेवकुषणविवरपायचारियो' उत्तरकुरु-देवकुरु - पनविपरपादचारिणः = उत्तरशुरूणां देवकुरुणा च क्षेत्र विशेषाणां यानि बनविपराणि-नस्थली पन्दरादिस्थानानि तत्र वाहनाभावाद पादैः चरणेश्वरन्ति ये ते तया, नरगणो युगंलिका', 'भोगुत्तमा' भोगोतमा : भोगप्रधानाः ' भोगलसणधरा' मोगलक्षणधरास्वस्तिकादि भोगसूचकलक्षण वन्त , ' भोगसस्सिरिया' मोगसश्रीका-भोगशोमालिनः 'पसत्यसोम्मपडि पुण्णरूवदरिसगिला' प्रशस्तसौम्पप्रतिपूर्णरूपदर्शनीया प्रशस्त सौम्यम् अतिमनोज्ञ प्रतिपूर्ण-सुपूर्ण रूपम् = आकृतियुपा ते तया 'सुजायसवगसुदरगा'
अय सूत्रकार " भोगभूमियों के जीवों की भी यही हालत होती है" यह कहते हैं-'भुज्जो उत्तरकुरुदेवकुरु ० इत्यादि ।
टीकार्थः- ( उत्तरकुरुदेवकृरुवणविवरपायचारिणो) उत्तरकुरु तथा देवकुम ये भोगभूमिया है। इन भोगभूमियों में वाहन-सवारी के अभाव से पैरों से ही वहा की वनस्थलियों में-कन्दरा आदि स्थानों में भ्रमण किया करते हैं । ( नरगणा) ये युगलिक मनुष्यगण ( भोगुत्तमा) उत्तम भोगवाले होते है। (भोगलक्खणधरा) स्वस्तिक आदि जो भोगसूचक चिन्ह हैं उनसे ये विशिष्टं रोते हैं । अतः वे ( भोगसस्सि रीया ) भोगों को भोगना इसी में ये अपनी शोभा मानते हैं । (पस स्थसोम्मपडिपुण्णरूवदरिसणिज्जा ) अतिमनोज्ञ पूर्णरूप से ये दर्शनीय
હવે સૂત્રકાર “ભગ ભૂમિના છની પણ એ જ હાલત હોય છે” ते ताव छ “भुज्जो उत्तरकुरू देवकुरु" त्यादि
- "उत्तरकुरूदेवकुरुवणविवरपायचारिणो" उत्तर पुरु तथा पर मे ભોગ ભૂમિ છે તે ભોગ ભૂમિમા વાહનને અભાવે પગપાળા જ મુસાફરી यश छे ते प्रदेशमा,रता " नरगणा" युगति “भोगुत्तमा" उत्तम सोग विसास सेवना। डाय छ " भोगलक्खणधरा" स्वस्ति माहिर सूय विही डाय छ तेमनाथी तेरा युत iय छ तेथी तमा.." भागस सिरीया" लगाना पा ४२वामा १ पोताना शाला भान छ “ पसत्य सोम्मपडिपुण्णरूवरिसणिज्जा" तेसो अतिशय मनोडल भने म सुंदर काय छ. "सुजायसव्वगसुदरगा" तेमना ४३३ शाम ६२ भने