________________
-
-
३९०
प्रश्नव्याकरण वचना ययनोक्तविशेषणानि यथायोग्यानि समागागि । चिरपरिचिय' चिरपरि चितम् अनादिकालादनुभूयमानम् , ' अणुगय' अनुगत मागिना पृष्ठतो लग्नम् , 'दुरत' दुरन्तम् दुःखावसानम् , 'निमि' इति सीमि = एतद् जम्बूस्वामिन मति सुधर्मस्वामिवारयम् ॥ २० २१ ॥ इति श्रीप्रश्नव्याकरणस्य मृदर्शन्यारयाया व्यायाया हिंसादि पचासवद्वारेषु
अदत्तादानारय तृतीयधर्मद्वार समाप्तम्।। ३ ।। 'यावत् ' शब्द से द्वितीय अलीक वचन सयधी अध्ययन में जो विशे पण कह गये हैं उनका यहा यथायोग्यरूप में संग्रह कर लेना चाहिये । यह अदत्तादान (चिरपरिचिय) अनादिकाल से जीनों के अनुभव में आ रहा है (अणुगय (मिथ्यात्व ) के कारण यह आत्मा के पीछे लगा हुआ है । (दुरत) दुःखप्रद ही इसका परिणाम-फल है। (तिमि) ऐसा मैं कहता हूं । इस प्रकार से यह जत्रू स्वामी के प्रति सुधर्मा स्वामी ने कहा है ॥सू० २१ ॥
॥ तीसरा आस्रव-'अधर्म' डार समाप्त ॥ બીજાની વસ્તુનું હરણ કરાવનાર લોભ, વગેરે સઘળી બાબતેનું મૂળ કારણ मा महत्ताहान छे, मी " यावत्" शमयी मी वयन विना पीन અધ્યયનમાં જે વિશેષણેને ઉપયોગ કરી છે, તેમને સંગ્રહ અહી ગ્ય शते श सेवानी छ, मा महत्तहान " चिरपरिचिय " मनायी वानर मनुलवमामाकी २७यु छ, (अणुगय) भिथ्यात्पने पारणे ते मात्भानी पाछ सागयु छे, (दुरत) तेनु -परिणाम महायी छ, (त्तिवेमि) मे हुई छु, या प्रमाणे सुधास्वाभीमे ४ भूस्वामीन यु, ॥ ९, २१ ॥
॥ त्रीने मानव-अभ'हारसमात ॥