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मन्नध्याकरण त्याज्यम् , 'उद्धनरयतिरियतिलोपडाण' अर्थ नम्पतिर्यकत्रिलोपतिप्ठानम्-अर्चलोको नरककस्तिर्यग्लोक त्यतत्प यन् मैलोक्य तत्र प्रविष्ठानम्
अपस्थिति येन मेथुनेन यत्तनवा लोकाये चतुर्गतिभाम समित्यर्थ , तथा 'जरा मरणरोगसोगनहुल । जन्मजरामरणरोगशोकाधनन्तदायमम्भुतम् , 'वष पपिघायदुनियाय ' वधमन्यपिघातदर्षिघातम्-तत्र धनन पत्य ज्या दिभिः सयमन, विधाता मारण चेत्येवैः दागिता दुमायो विधातो दुःख यस्मिन् तत्तथा धन्यादिगिरिधदुमजना मित्पर्धः, 'टसणचरितमोहस्सहेउभूय' दर्शनचारित्रमोहस्य हेनुभूत-दर्शनमोहम्य चारित्रमोहस्य च वचकारणम्-इदमब्रह्मजिनपचने शहाकाहादिदोपोडावावाद् दर्शनमोहम्य कारण, चारित्रभेदजनस्ताचारिनमोहस्येति भार' । तथा 'चिरपचिय' चिरपरिचित णजणवज्जणिज्ज) जो साधुजन है वे तो इस कृत्य को सदा त्याज्य ही मानते हैं (उड नरयतिरियतिलोकपडाण) हम मैथुन सेवन से जीवका परिभ्रमण उर्चलोक मायलोक एव पाताललोक रूप त्रलोक्य में होता है। (जरामरण रोगसोगमल) यह कम जन्म, जरा, मरण, शोक आदि अनत दुःखोसे भरा हुआ है। (वधरधविधायदुन्धिघाय) इसमे वध, वधन एव मरण जन्य दुः सह दुख भरे हुए हैं। (दसणचरित्तमो हस्स हेउभूय) दर्शन मोहनीय तथा चारित्रमोहनीय का यह हेतुभूत है । अर्थात-पह अब्रह्म जिनपचन मे शका कक्षा आदि दोषों का जनक होने के कारण दर्शन मोहका और चारित्रका विनाशक होने से चारित्र मोहनीय कर्म के बध को कारण माना गया है । (चिरपरिचिय) जीवों के साथ इसका परिचय चिरकाल से जन्म जन्मान्तरों में आसे वित होते रहने के कारण चला आ रहा है । इसीलिये ( अणुगय ) यह " सुयणजणवजणिज्ज" ५ सतपुरुषो तो मे इत्यने सहा त्याचा योग्य भाने छ,' उड्डनरयतिरियतिलोकपइट्टाण" मे भैथुनना सवनयी वने ઉદલેક અને પાતાળક, એ રીતે ત્રણલેકમાં પરિભ્રમણ કરવું પડે છે, "जरामरणरोगसोगमूल " ते उभ सन्म ४२, भ२, ४ मादि मनत
माथी मरेतु छ, "वधवधविधायदुविधाय" तेभा वध, धन भने भ२१ शन्य सडकमा छ, "दसणचरित मोहस्स हेउभूय " तहरीन મેહનીય તથા ચારિત્ર મેહનીયના કારણરૂપ છે, એટલે કે તે બ્રહ્મ જિનવચમાં શકા કાક્ષા આદિ દેનુ જનક હોવાથી દર્શનમોહનીય અને ચારિત્રનું विनाश डोवाथी यारित्र भानीय भन। धनु मनायुछ ‘चिरपरि चिय" भन्मान्तथी सेवातु डावाने १२ तेना यानी सथ।