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प्राध्यापरकरे
चास्य तथाहि-न तापनिर्गुणत्व चेतनास्वरूपसाभ्युपगमात् । अनुपलेपस्त्वमपि न पद्धमुक्तावस्था व्यवस्थापिच्छेदमसगात् ।। १०७ ॥
पुनरप्याह-'अपि य' इत्यादि
मूलम्-अवि य एवमास असम्भाव जपि एहि किंचि जीवलोगे दोसई सुकय वा दुकयं वा, एव जइच्छाए वा सहावेण वावि दयिवयप्पभावओ वावि भवइ, नस्थि तत्थ किचिकयक तत्त लक्खणं विहाण नियइ कारिया एव केइ जंपति इडिरससायगारवपरावहवे करणालसा पस्वेति धम्मवीमसएणं मोस ॥ सू० ८॥
टीका-'अवि य ' अपि च एरवक्ष्यमाणरीत्या 'असम्भार ' असद्भाव 'आह मु' आहुः कथयन्ति कथमित्याह-'जपि' यदपि किंचि' किश्चित् 'पहि' समान निलिस है । अतः कहा है "अकर्ता निर्गुणो भोक्ता" आत्मा कपिल दर्शने" यह भी युक्ति युक्त नहीं है कारण आत्माको सर्वथा निर्गुण मानने पर उसमें चेतनत्व गुण का भी अभाव होने से अचेत नत्व का प्रसग प्राप्त होगा, परन्तु ऐसी बात तो वहा मानी नही गई है। क्यों कि आत्मा को चेतना गुण स्वरूप स्वीकार किया गया है । तथा पुष्कर पलाशयत् सर्वथा निर्लिप्त मानने पर उसकी जो बद्ध-ससारी
और मुक्त ये जो दो अवस्थाएँ होती हैं उनकी व्यवस्था का विच्छेद प्राप्त होता है। सू-६॥
तथा-'अवि य' इत्यादि। टीकार्थ-(अवि य एव अमभाव आहत) इस प्रकार से जो अस मात्मात भणपत्र समान निर्मित छ तेथी छु छ " अकर्ता निगुणो भोक्ता आत्मा कपिलदर्शने" ते ५ युतियुत नथी, आरमात्माने सर्वथा નિર્ગુણ માનવામાં આવે તે તેમા ચેતનત્વ ગુણને પણ અભાવ હેવાથી અચે તત્વને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે, પણ એમ તે ત્યા માનેલ નથી, કારણ કે આત્માને ચેતનગુણ સ્વરૂપ સ્વીકાર્યો છે તથા કમલપત્ર પર રહેલ જળબિન્દુથી અલિપ્ત કમળ જે તેને માનવામાં આવે તે તેની બદ્ધ-ન્સ સારી અને મુક્ત એ બે અવસ્થાએ જે હોય છે તેની વ્યાવસ્થાનું ખડન થશે | સૂ-દા.
तथा-" अवि य" त्यादि साथ-"अवि य एव असन्भाव आइसु" म प्रमाणे