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प्रश्नग्याकरण णादिलक्षणैः कर्मभिर्नद्धाथ ये 'सत्त' साचा:माणिनस्तथा 'पाहिज्जमाण' कृष्यमाणाः कृप्यकर्मनन्धनेन रज्जुनद्धकाप्टमिन नरकं मत्यामप्यमानाः 'निरय तल' नरक एप तल पाताल 'दुत्त' तदभिमुस ' सण ' सना-नरकरूपमा तालगमनाभिमुखत्वात् खिन्नाः तथा ' विसष्ण' विषण्णाय 'गोकातिगय माता: ये माणिनस्तै बहुलो य स तया तम् । तथा 'अरइरइभयविसायमोगमिच्उत्त सेलसफड ' अरतिरतिभयपिपादशोकमि यात्वशैलसमट =तर-घरतिः = धर्मेन. रुचि रतिः विपयेषु रुचिः गयइहलोकादि मप्तभयानि विपादा अनिष्टसयोगजनितदुःख शोका-इप्टरियोगजनितन्य मि यात्र च कुदेवगुरुकुधर्मश्रदाल क्षणमित्येतान्येन शैलापतास्तैः सङ्कट. रिपमो यः स तथा तम् , अरस्यादि और इन उपहारों से इसमें (गरियकम्मपडियद्धसत्त) ज्ञानावरण आदि कर्मो से बद्ध प्राणी गृहीत बने हुए है। तथा (कज्जिमाण) पूर्वकृत कर्मनधन के द्वारा रज्जु बद्ध काष्ठ की तरह यहां वह प्राणिवर्ग नरक की और खेचा जा रहा है और (निरयतलवुत्त) नरकतक की
ओर गमन करने में सन्मुग्व होनेकी वजह से यहा वह प्राणीवर्ग (सण्ण विसण्णवहुल) सन्न-खिन्न, एव विपण्ण शोकातिशय को प्राप्त हो रहा है । तथा (अरइरइभ्यविसायसोगमिच्छत्तसेलसकड) (अरइ) अरति धर्ममे अरुचि, (रइ) रति-विपयों में रुचि, (भय) इहलोकभय, परलोक भय आदि सात मय, (विसाय) विपाद-अनिष्ट सयोग जनित दुःख, (सोग) शोक-इष्ट वियोग जनित दैन्यभाव, (मिच्छत्त) मिथ्यात्वकुगुरु, कुदेव और कुधर्म की श्रद्धा, ये ही सब इस ससारसमुद्र में (सेल) पर्वत जैसे है सो इन पर्वतोंसे यह (सफड) विपम बना हुआ है। 6431२ जयन्तु विशेष मरस छ मन त पडाशयातमा “ गहियकम्भ पडिबद्धसत्त' ज्ञाना१२ मा थी मधायद आणी सपायेदा छ तथा
"कढिज्जमाण" पूर्व ४२सा डर्मा द्वारा, हाथी राधेला 18नी रेभ ते प्राशीमा न२७नी त२६ मे या २छा छ, भने "निरयलदुत्त " न२४ त२३ गमन ४२वाने मलिभुभावाने २ ते प्राणीमा "सण्णविसण्णबहुल" मिन्न मन अतिशय शी युत थ६ २६॥ छ तथा “ अरइ-रइभय-विसाय-सोगमिच्छत्त सेलसकड " " अरइ" अति-धभभा सथि, "रइ" रति-विषयोभा ति, भय" मानो लय, ५२साइनो लय मा सात लय, "विसाय" विषा:शनिट से या नित u “ सोग" -ट दिया। नित न्यभाव, " मिच्छत्त" भिथ्यात्व शुरु, ५ मने सुधमनी श्रद्धा, 2 मधु मा ससारसागरमा “ सेल" त छ, से पताथी त “सकड" विषम