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सुदर्शिनी टीका म० ३ सू० १९ ससारसागरस्वरूपनिरूपणम् ३७१ क्रियमाणो य सः ' तथा 'सतापगिच्चय' सन्तापनित्यका सन्तापः-विविधाधि व्याधिपन्धुरियोगादि जातः सागरस्थवडवाग्निसन्तापस्पो दुःखसन्तापो नित्य यत्र स सन्तापनित्यमः, अतएव-'चलतचवलचचल' चलच्चपलचञ्चल अत्यन्तमस्थिरः, सततपरिवर्तनशीलमित्यर्थः तम् , तथा 'अत्ताणासरण' अत्राणाऽगर णाना, अनाणानामशरणाना 'पुनकम्मसचय' पूर्वकर्मसञ्चयाना माणिना उदीर्णम् -उदयमान यत् 'ज्ज ' अवधपाप तस्य यः 'वेदिनमाण ' वेद्यमानः उप भुज्यमान• 'दुहसयवियाग' दुःखशतरूपो विपाकः स एर घुर्णन-भ्रमन् जल समूहो अत्र स तथा तम्, इड्डिरससायगारगोहारगहियफम्मपडिनद्धमत्तकड्डि
जमाणनिरयतलदुत्तसगरिसण्णबहुल । ऋद्धिरससातगौरवोपहारगृहीतकर्मप्रतिबद्धसत्त्वकृष्यमाणनिरयतलदुत्तसन्नविपण्णबहुलम्, तत्र इडिरससायगारवोहार' ऋद्धि रससातगौरवोपहारा =ऋद्धिरससानलक्षणानि गौरवाण्येव उपहारा'जलचरविशेपाम्तैः 'गहिय ' गृहीताः 'कम्मपडिनद्ध' कर्मपतिपदा. ज्ञानावर (खोक्खुन्भमाण ) यर अत्यत क्षुभित बना हुआ है । (सतावणिच्चय) विविध व्याधि, वन्यु वियोग आदि जन्य दुखरूप वडवाग्नि का इसमें नित्य सताप छाया हुआ है । और यह (चलतचवलचचल ) निरन्तर परिवर्तन शील है। एव इस समुद्र मे (अत्ताणा सरण) त्राण एव शरण रहित ऐसे प्राणियों के जिनके पास (पुवकम्मसचय) पूर्वकृत कर्मों का सचय मौजूद है (उदिण्णवज्ज) उदय में आया हुआ जो पापकर्म का (वेदिज्जमाणदुसयविवाग) उपभुज्यमान जो दुखशत (सैकडोदु.ख) रूप फल है वह फल हो चहा (बुणतजलसमूह ) चलता हुआ जल भरा हुआ है (इरिससायगारवोहारगदियकम्मपडिपद्धसत्तकडिज्जमाणनि रयतलदुत्तसण्णविसण्णबहुल) ऋद्धि रससातरूप गौरव ही इस ससार समुद्र में ( उवहार ) उपहार जलचर जन्तु विशेप भरे हुए है "सोमखुभमाण ' सत्य त ममी 0 छ, “सतानणिचय" विविध मावि વ્યાધિ, બધુ વિયેગ આદિ જન્ય દુ ખરૂપ વડવાનલને સતાપ તેમાં નિત્ય व्यापेस डाय छ, भने ते “चलतचपलचचल" नि२ त२ परिवतन शीर छ, भने सा ससा२मा “ अत्ताणासरण, ना माने. २१ २डित मे । छ भनी पामे “पुचकम्मसचय" पूर्व ४२॥ उनि। समूह २। छ, " उदिण्णाज" भनेरे पाप भनि। मध्य थयेा छ ते ५५ भनि “वेदिज्जमाण दुहसयविवाग" सागवा ३५ से ५ “सैकडोदु स" ३५ २ २० छे, ते ३॥ त्या "घुणतजलसमूह " पडता ४॥ समान छ “ इडिढरससायगारवोहार-गहियकम्म-पडिबद्ध-सत्त कड्ढिजमाणनिर-यतलदुत्तसण्ण-विसण्ण
सात ३५ गौरव ४ मा २५ सार सागमा “ उवहार"