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सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १९ सप्लारसागरस्वरूपनिरूपणम् न्तस्तलमित्यर्थः तमेवभृत संसारसागर 'सरीरमणोमयाणि दुक्खाणि उप्पियता' शरीरमनोमयानि दुःगानि उत्पिपन्तः कायिकानि मानसिकानि च विविधानि दुःखानि आस्वादयन्तः अनुभवन्त इत्यर्थः, 'सायासायपरितावणमय उगुड्डनि इयं परेता ' माताऽमातपरितापनमयमुद्गुडननिठुडनक कुर्नन्त'-सुग्वदुःखतापात्मरमुन्मज्जननिमज्जनमनुभनन्त सात-मुस तदात्मरमुन्मज्जनममातपरितापन दुःससन्तापम्तदात्मक निमज्जनमनुभयन्त 'चउरतमहत ' चतुरन्तमहान्त चतुरन्त नरकादि चतुर्विभागयुक्त महान्तम् अनन्त जन्ममरणादिदुःखयुक्ततात् । तथा 'अणवयग्ग ' अनादग्र-अनन्तम्-अन्तरहितमित्यर्थः, 'स्द' स्द्र-सकल हैं और नाना प्रकार के दायोंको भोगा करते है. अतः यह दुःख समूह ही इस ससार समुद्र में अथाह जल भरा हुआ है । उसमें हो ये जीव बहुत अधिक रूप में दूफिया लेते रहते हैं, उन्मग्न, निमग्न होते रहते हैं । फिर वे इसके अन्तस्तल को कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? नहीं कर सकते । इमलिये सूत्रकार ने ऐसे जीवों के लिये इमका पार पाना थाह प्राप्त करना-दुगस्य-असभव कहा है । ( सरीरमणोमवाणी) इस ससार सागर में पड़े हो जीव शारीरिक एव मानसिक (दुक्साणि) दुःखोंका ही (उप्पियता) अनुभव करते हैं । तया (सायासायपरितावणमय) सातासात परितापन रूप (उन्मुडनिडय) उन्मज्जन निमज्जन अर्थात् सातात्मक उन्मज्जन तथा असातात्मक ण्व परितापात्मक निमज्जन (करेता) करने में तल्लीन हुए ये जीव (चाउरतमहत) नरकादि गति रूप चार विभागों से युक्त तथा जन्म मरणादि के अनन्त दुःखों से महान्, (अगवयग्ग) अन्तरहित (रुट्ट) समस्त प्राणियोको भयजनक, દુખે ભેગવ્યા કરે છે તેથી આ સંસારસાગરમાં દુ ખ સમૂહરૂપ અપાર જળ ભરેલ છે તેમાં જ તે જીવો વરવાર ડૂબકીઓ ખાધા કરે છે તે પછી તેઓ તેના કિનારે તે પહેચી કેવી રીતે કે? તે કારણે સૂત્રકારે એવા ७शन माटे तेन पा२ पासवानु जय राय मताव्यु छे “सरीरमणोमया णि " मा समा२ मागरमा ५॥ ॥ NR भातभिड " दुस्साणि" हमानी “उप्पियता" अनुमक उरेले तथा “सायासायपरितावणमय" सातासात परितापन ३५ " उन्मुडनियुडय” भन निसटले કે સાતાત્મક ઉન્મજ્જન (પાણીની ઉપર આવવું તે) તથા અમાતાત્મક અને • तापम निमन (म त) “करे ता" उपमा दीन थये ते ७। " चाउरतमहत " Pule ति३५ या२ विभाग तथा म भरमाथी भडान, “अणयग्ग" सन्त२डित, “ रुई" मा प्राणीमान.