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मुर्शिनी टीका अ०२ सू० ७ नास्तिकवादिमतनिरूपणम्
तथा दैनादिनः" प्राप्तव्यमयं लभते मनुष्यः, किं कारण दैवमलदुनीयम् । __ तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे, यदस्मदीय नहितत्परेपाम् ॥"
तथा नत्यि' नास्ति 'तत्य' तत्र मर्त्यलोके 'किंचि ' किञ्चित् 'कयक' कृतक-कर्मनिप्पन्न 'वत्त' तत्त्व-बस्तु । तथा 'लक्खगविहाण ' लक्षणनिधाना =पदार्थस्वरूपमझाराणा नियति भाग्यमेव 'कारिया' कारिका-कर्ती, तथा यन्न कार्यकारणभाव का विच्छेद प्राप्त होता है।
अय दैववादियों का स्वरूप कहते हैं-'दवियापभावओवावि भवह' इत्यादि । दैववादियों कि ऐसी मान्यता है
“प्राप्तव्यमयं लभते मनुष्यः, किं कारण दैवमलद्धनीयम् । तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे, यदस्मदीय नहि तत् परेपाम् ॥१॥"
जो कुछ प्राप्त होने योग्य वस्तु है वह हमे भाग्य की कृपा से ही प्राप्त होती है। यह भाग्य अलघनीय है । अत. ऐसा समझकर कि जो हमारी है वह दूसरों की कमी नहीं हो सकती है कभी भी किसी प्राणी को शोक फिकर और आश्चर्य आदि नहीं करना चाहिये ॥१॥ ____ अतः हे भाइयो ! तुम एक मात्र दैव-भाग्य पर ही भरोसा रखो। (नत्यि तस्स किंचि कयक तत्त) रोकमें कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो कृतक हो परुषार्य रूप कर्म से प्राप्त की जा सके-ऐसी हो । इमी प्रकार (लक्खणविहाण ) पदार्यों का जितना भी कुछ अपना रूप है तथा उनके जितने भी प्रकार-भेद हैं इन सबकी (कारिया ) कारिका करने
ये हैवपाहीसानु श्व३५ उ छ-" दरियप्पभावओपनि भनइ" त्याल દૈવવાદીઓની માન્યતા છે કે
" प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यः, किं कारण देवमलद्धनीयम् । तस्मान शोचामि न विस्मयो मे, यहम्मदीय नहि तत् परेपाम्" ॥१॥
પ્રાપ્ત થવા લાયક છે કે વસ્તુ હોય છે તે આપણને ભાગ્યની કૃપાથી જ મળે છે તે ભાગ્ય અલ ઘનીય-અફર છે જે અમારી ચીજ છે તે બીજાની કદી પણ થઈ શકતી નથી, એવુ સમજીને કદી પણ કોઈ પ્રાણીએ શેડ, ચિન્તા આશ્ચર્ય આદિ કરવા જોઈએ નહીં ?
તે હે ભાઈઓ ! તમે એક માત્ર ભાગ્ય ઉપર જ વિશ્વાસ રાખે
"नत्थि तरस किंचि कयक तत्त" सभा मेवा तु नयी रे इत: हाय-पायथी प्रास असहाय पी डाय गते " लसणविहाण " पहानु२४ पोतानु ३५ तथा तभना २सा - , ते पधानी "कारिया" ना-नाग " नियई " मा नियति-भाग्य-र