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सुदर्शनी टीका २० २ सू० ८-९. मन्येषामपि मृपाभाषणनिरूपणम् २०९ 'अखइ य पीएण' अक्षतिकपीजेन-क्षय दुग्यकारणेन 'इम्मवरणेण ' कर्मवन्धनेन 'अप्पाण' आत्मान 'वेति' वेष्टयन्ति, नरकनिगोदायनन्तदुग्यदायक कर्माणि समुपार्जयन्तीत्ययंके ते' इत्याद-मुहरो' मुखारय-मुखमेव अरि
शत्रु-गउत्वजनकवचनभापित्याद पा ते तथा। 'असमिविश्वयप्पलावी' असमीक्षितमलपिन:-अपिचारितानयरक्तार इति ।। मू. ८॥ पुनस्ते किं कुर्वन्ति । तदाह-निक्खेरे ' इत्यादि ।
मूगम्-निक्खे। अवहरंति परस्स अथिम्नि गढिय गिद्धा अभिजुजति य पर असतएहि लुद्धा य करेति कूड सकिखत्तण, असच्चा अत्यालिय च कन्नालियं च, भोमालियं च तहा गवालिय च, गरुय भणति, अहरगइ गमण अपणं पि य जाइकुलरूबसीलपच्चयमाचा निगुण चवला पिसुणं परमट्ठभेदगमसतक विदेसमणत्थकारग पावकम्ममूलं दुदिट्ट दुस्सुय अमुणियं निल्लन लोगगरहणिज्ज वहवध परिकिलेसबहुल जरामरणदुक्खसोगनेम असुद्ध परिणाम सकिलिट्र भणति ॥ सू० ९ ॥ करने में ही लगे तुप मृपावादी पुरुप ( अवयवीएण) अक्षतिक वीज अक्षय दस के कारणभूत (कम्मर रणेण ) कर्मधन से (अप्पाण) अपने आपको (वेडेति) परिवेष्टित करते है, अर्थात-नरकनिगोद आदि के अनत) दुखों को देनेवाले कमों को उपार्जित करते हैं। वैसे कौन होते हैं ?-(मुहरी) जिनका मुसही त्रु होता है, (असमिरिखयप्पलावी ) जो विना विचार किये ही अनर्थक प्रलाप करनेवाले होते है । वे ही पूर्वोक्त प्रकार का अमत्यमापण करते है ।। सू-८ ॥ पाही पु५ “ अक्सइयवीण " अक्षति प-मदाय भने माटे ४२९१ ३५ "म्मवधणेण" उ नयी “ अप्पाण"पोतानी तने “ वेदेति " पवित કરે છે, એટલે કે નરવ નિગદ આદિના અનન્ત દુખે દેનાર કર્મોનું ઉપ ર્જન ४रे मेवा र हाय" मुही" भनु भुगतेभनी शत्रु डाय छ, भने “अममिक्सियप्पलावी" २ विना विधाये मन प्रसा५ ४२नार हाय છે તેઓ જ પૂર્વેત પ્રકારનું અસત્ય ભાષણ કરે છે. -
2016