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प्रश्नध्याकरणसूत्रे अनन्तम् समारि जीवापेक्षया अन्तरहितम् 'उगजणय ' उद्वेगजनक प्राधिव्याधि प्रभृतिदुःखशतयुक्तत्वात् ' अगोरसार ' अनार पारम् अपार मह
भय ' महाभय-महाभपजनक दुम्मारवाद , भयकरमप्रकृतिमहामत्पमकरा दिभिः व्याप्तत्वात् , 'पEमय ' प्रतिमयपतिपाणिन भयनना मालपाणिभयो स्पादकसात् 'अपरिमिय महिच्छफलुममति पाउरोग उद्धमामाणासापियामापायाल' अपरिमितमहेच्छाफलुपमतियायुवेगोदम्यमानाशापिपासापातालम् , तर अपरिमि ता अपरिमाणा महती-पिशाला चेच्छा-पिपयामिलापा, 'फलस' कलपा मलिना या मति =शुद्धिः सा एव 'वायुवेग' गायुगस्तेन ' उम्मन्माण' उदम्यमाना प्रवर्द्धमाना या आशा अमातार्थस्य प्राप्ति सम्भावना, पिपासा प्राप्तायस्योप भोगवान्छाः , एता एव पाताल या स तथा तम्, अपरिमितमहेच्छामलिनाद रहित है । ( उन्वेगजणय) आधि व्याधि आदि सैकड़ों दुःखों से युक्त होने के कारण यह उद्वेगजनक है। तथा (अणोरपार) यह अदृष्ट पारवाला है-इसका पार अदृष्ट है । (महन्भय ) दुस्तर होने से यह जीवा को महाभय का जनक है । कर्मों की १४८ उत्तर प्रकृतिरूप महामत्स्य मकर आदि जलचर जीवो से यह व्याप्त है । समस्त प्राणियों के लिय भय का उत्पादक होने के कारण यह (पहभय ) हरएक जीव के लिय भय का जनक बना हुआ है। (अपरिमियमहिच्छालुसमतिवाउवंग उद्धम्ममाणासापिवासापायाल ) (अपरिमिय) अपरिमित तथा (महिच्छ) महता विषयाशारूप एव ( कलुसमति ) मलिनबुद्धिरूप (वाउवेग) वायु के वेग से (उद्धम्नमाण ) प्रवर्द्धमान ऐसी (आसा) आशा-अप्राप्त अर्थ के प्राप्त करने की सभावनारूप तथा (पिवासा) पिपासा-अर्थ का उप
वानी अपेक्षा ते सन्तडित छे " उन्वेगजणय " माधिव्याधि माह से माथी युत पाथी त देशन तथा “ अणोरपार " त
मसीभ-२५५२ छ “ महब्भय " स्तर डावाथी ते वान भाट मालय પેિદા કરનાર છે કર્મોની ૧૪૮ ઉત્તર પ્રકૃતિરૂપ મહામત્ય, મગર આદિ જી ચર જીવોથી તે વ્યાપ્ત છે સમસ્ત પ્રાણીઓને માટે તે ભય પેદા કરનાર लावाथी ते 'पइभय " हरे वने माटे नयन छ “ अपरिमिय महि च्छकलुसमतिबाउवेगउद्धम्ममाणासापिवासापायाल " " अपरिमिय" अपार मित तथा 'मिहिच्छ" भारी विषय वासना ३५ भने “कलुसमति" मलिन भति३५, “वाउवेग" वायुना गयी “ उद्धम्ममाण " qधती ती मेवा " आसा" माशा-मास पस्तुने पास ७२पानी समावन तथा “पिवासा"