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सुवशिनी टीका म० ३ सू० १२ अदत्तादानफलनिरूपणम्
३१७ नरकनिगोदादिदु खभागिनः, 'निच्चाउलदुहमनिम्जुङमणा' नित्याकुलदुःखाऽनिघृतिकमनस' =नित्यमाकुल-व्याकुलित दुःखयुक्तम् , अनितिक स्वास्थ्यरहित मनो येपा ते तथा निरन्तरमतापसंकुलाः, इहलोके चैत्र, चात् परलोकेऽपि 'फिलिस्सता' क्लिश्यन्तः-क्लेशमनुभवन्तः 'परदबहरा' परद्रव्यहराः परधनापहरणगीला नरा: मनुष्याः 'वसणसय ' व्यसनशत-दुःखप्रचुरम् 'आवण्णा' आपन्नाःमाप्ताः परियन्तीत्यनेन सम्बन्धः ॥ सू० १२ ॥
एव ' यथाकृत' इत्यन्तरिमुक्तम् , अध ' यथाफलदेह' इति अदत्तादान फलपतिपादक चतुर्थद्वार प्राह-'तहेर केड इत्यादि
मूलम्-तहेव केइ परस्सदव्वं गवेसमाणा गहिया य हया य वद्धा रुद्धा य तुरियं अइधाडिया पुरवर संमप्पिया चोरग्गाह चारभडचाडुकराण, तेहि य कप्पडप्पहारनिद्दयाऽऽरक्खिय खरफरुसवयणतज्जणगलस्थल्ल उत्थलणाहि विमणाचारगवसहि पवेसिया निरयवसहिसरिस तत्थ वि से युक्त होते हैं । (दुक्खभागी) शुभपरिणामों से रहित होने के कारण ये परभव मे नरक निगोद आदि के दुःखों को भोगा करते है। (णिच्चा उलदुर्मणिन्वुइमणा) इनका मन सदा व्याकुल बना रहता है, इसी से ये निरन्तर मानसिक स्वास्थ्य से रहित होकर सताप से सकुल होते रहते हैं। इस तरह (इहलोगे चेव) इस लोक में तथा 'च' शब्द से परलोक मे भी (किलिस्सता) क्लेशा का अनुभव करते हुए ये (पर दवहरा) पर द्रव्यापहारी चोर (वसणसय) अनेक दुःखों को (आवण्णा) प्राप्त होकर (परेंति) भ्रमण करते है अर्थात् अपने समय को दुर्गतियों के भ्रमण करने में ही व्यतीत करते रहते है ॥ १२॥ " दक्सभागी" शुभ परिणामा-भावाथी २डित जापान सरवो तमा ५२सपमा २४ निशा माहिना लागव्या ४२ छ “णिच्चाउलदुहमणि व्वुइमणा" भनु મન સદા વ્યાકુળ રહે છે, તેથી તેઓ નિરતર માનસિક સ્વાધ્યથી રહિત मनीन मताथा युत २९ , माशते " इहलोगेचेव " मा साउभा तथा 'च' शन्थी ५२मा ५ " किलिस्सता" माने अनुभवता ते "परदव्य हरा" ५२धननु २५ जना या२ सा“ वसणसय " अनेम “ आचण्णा" मनुलवता " परे ति" प्रभए४२ छ, मेटले हुतायोमा प्रम! કરવામાં જ પિતાને કાળ વ્યતીત કરે છે સુ-૧૨ા.