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कीदृशाः सन्तो भ्रमन्ति ? इत्याह-- ' फासिंदियभानमपत्ता ' स शैन्द्रियभारसम्मयुक्ता=स्पर्शमात्रै केन्द्रियत्व प्राप्ताः, 'वहिं तहिं चेत्र ' तत्र तत्रैत्र तस्पतिकाय पर फीडशे ? इत्याह-' परभातरुगणगहणे परभरतरुगणगहने = पराः = प्रकृष्टाः सर्वोत्कृष्ट कार्यस्थितिस्त्वात् भवाः उत्पत्तिस्थानानि येषु ते तादृशा तरुगणा: वृक्षगुच्च्गुल्मादिसमृद्दास्तैगैहने गम्भीरे 'पुणो पुणो ' पुनः पुनः मुहुर्मुहुः 'इम' पक्ष्यमाणम् ' अणि ' अनिष्ट प्रतिकूल दुःश्वसमुदय = दु खसमूह = नानाविधमशात वेदनीयरूप 'पारति ' मातुरन्ति । सर्वासा जातीनां कुलकोटयो यथा -
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'एगिदिए पचछ, बारस-सत्त-तिग-सत्त-अहीसा य ।
विगले सत्त अड नत्र, जल- खह - चउप्पय- उरंग - भुयगे ॥ १ ॥ अद्धत्तेरस वारस, दस दस नवग नरामरे नरए ।
वारस छवीस पणवीस हुति कुलको डिलम्खाइ ॥ २ ॥ " इति । ( फार्मिदिय भावसंपत्ता) ये सब जीन एक स्पर्शन इन्द्रिय वाले
ही होते हैं । और ( तर्हि तर्हि चेव ) उसी वनस्पतिकाय में कि जहाँ ( परभवनरुगणगहणे ) वृक्ष, गुच्छ, गुल्म आदि समृहरूप भव सर्वोत्कृष्ट हैं और उनसे जो गहन बना हुआ है ( पुणो पुणो ) वार २ ( इम) इन वक्ष्यमाण (अणिह ) अनिष्ट - प्रतिकूल (दुक्ख समुदय ) दुःखों को - नाना विध अशात वेदनीय रूप कष्टों को (पावति ) पाते हैं । समस्त जातियों के कुल कोटियों की संख्या इस प्रकार हैं---
पृथ्वीकाय के बारह लाख, अप्काय के सात लाख, तेउकाय के तीन लाख, वायुका के सात लाख, वनस्पतिकाय के अट्ठाईस लाख,
" फार्सिदिय भावसपत्ता ” તે મધા જીવા એકલી સ્પન ઈન્દ્રિયથી युक्त होय छे, भने “ ' तहिं तहिं चैव " ते न वनस्पतिजयमा ल्या परभव तरुगण गणे" वृक्ष, गुछ, शुभ शाहि सभूय लव सर्वोत्लष्ट छे भने तेमनाथी ने गहुन जनेस छे “पुणो पुणो "
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વાર વાર इम' मा
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प्रमाणे “अणिदु ” अनिष्ट-प्रतिपूण " "" दुक्ख समुदय હું ખાને વિવિધ આશાતા वहनीय ३ ष्टीने " पावति" अनुलवे छे सघणी लतियोनी योनियोना પ્રકારાની સખ્યા નીચે પ્રમાણે છે
પૃથ્વીકાયના ખાર લાખ, અપ્કાયના સાત લાખ, તેઉકાયના ત્રણ લાખ, વાયુકાયના સાત લાખ, વનસ્પતિકાયના અઠ્ઠાવીસ લાખ, દ્વિઈન્દ્રિય જ્વાના