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सुदर्शिनी टीका अ० १ २०१७ मनुष्यभघद् पनिरूपणम् निरूपणेनैव तदन्तर्गतफल विपास्म्यापि तदुक्त ससिद्वो पुनः पृथक तस्य महा वीरोक्तत्वाभिधान माणिवधस्यैकान्तिका शुभफलदायकत्वात्तस्यात्यन्तहेयत्वद्योतनार्थम् । ' एसो सो' एप स. पूर्वोपदर्शित सरूपः 'पाणवहो ' पाणपध. 'चडो' चण्डः क्रोधजनस्वात् , ' रहो' रोद्र मौद्ररसप्रार्तितत्वात् , 'खुद्द' क्षुद्रः अपमजनाचरितत्वात् ' साहसिओ' साहसिका=अममीक्ष्यकारिजनप्रवर्तितत्वात् , अइभओ पीरणओ तासणओ अणज्जओ णिरवयक्खो, निद्धम्मो, निप्पियासो, निफलुणो, निरयवासगमणनिधणो, मोहमभयपयओ मरणवेमणस्सो, ति वेमि ) । . शका-जय सूत्रकार ने ईस अध्ययन में महाविरोतता निरूपित फी है तब यह बात तो स्वतः सिद्ध हो ही जाती है कि तदन्तर्गन फल विपाक भी उन्हीं द्वारा कहा गया है, फिर क्या बात है जो इममें पृथक रूप से महावीरोक्तता प्रतिपादित की जा रही है ?
उत्तर-शंका ठीक है, परतु इसका अभिप्राय केवल इतना ही है कि पुनः इसमें जो तदुक्तता प्रतिपादित की है उससे उसमें-माणिवर मेंऐकान्तिक अशुभफलदायकता होने से अत्यन्त हेयता प्रकट की गई है। यही यात सूत्रकार इन आगे के पदों द्वारा स्पष्ट करते हैं-( एसो सो) पूर्वोपदर्शित स्वरूप वाला यह (पाणवहो) प्राणवध-(चडो)क्रोधजनक होने से चण्ड है, (रुद्दो) रौद्र रस द्वारा प्रवनित होने से रौद्र है, (खुद्दो ) अधमजनों द्वारा आचरित होने से क्षुद्र है. (साहसिओ) पीहणओ तासणओ अणज्जओ गिरस्यक्सो, निद्धम्मो, निपिवासो, निफ्लुणो निर यवासगमणनिधणो, मोहमहत्भयपयो मरणवेमणरसो तिबेमि"
શકા–જ્યારે સૂવકારે આ અધ્યયનમાં મહાવીરેક્તતાનું નિરૂપણ કર્યું છે ત્યારે તે વાત તે આપોઆપ સિદ્ધ થઈ જ જાય છે કે તેમા આવતે ફલવિપાક પણ તેમના દ્વારા કહેવાયેલ છે, તે શા કારણે તેને અલગ રીતે મહાવીરક્તતાનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવેલ છે ?
ઉત્તર–શકા બરાબર છે પણ તેને ઉરે કેવળ એટલે જ છે કે ફરીથી તેમાં જે તેમના દ્વારા કથિત હોવાનું પ્રતિપાદન કર્યું છે તેથી તેમા પ્રાણ વધમાં એકાન્તિક અશુભ ફલદાયકતા હોવાથી અત્યત હેયતા પ્રગટ કરાઈ છે को वात सूत्रा२ मा सावता मा यही द्वारा स्पष्ट ४२ छ-"एसो सो" मा शापामा मावस २१३५वाण ते "पाणवहो" प्रावध " चण्डो" धरान पाथी २ छ, “महो" शैद्र२स द्वा! प्रपति डोवाथी सेद्र छ, "खुद्दो ' म सदा । मायरित पाने २0 क्षुद्र छ, “साहसिओ"