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प्रश्नव्याकरण फलविवागं । एसो सो पाणवहो चंडो रुद्दो खुदो साहसिओ अणारिओ, निग्घिणो, निस्ससो महभओ, पइभओ अइभओ, वीहणओ, तासणओ, अणजओ, उव्वेयणओ य-णिरवयक्खो, णिद्धम्मो, णिप्पिवासो, निकलुणो निरयवासगमणनिधणो। मोहमहन्भयपवड्डओ मरणवेमणस्सो तिमि ॥ सू० ४७ ॥
___॥ पढम अहम्मदारं समत्त ॥ १॥ टीका-'ए' उक्तमकारेण 'गरग'नरक, मनुष्यलोके 'तिरिक्ख जोणिं' तिर्यग्योनि-पञ्चेन्द्रियादिभर 'कुमाणुसत्त' कुमानुपत्त-कुजगामनादि विकृताङ्गोपाङ्गरूपा मनुष्ययोनि च 'हिंडमाणा' हिण्डमाना =भ्रमन्तः 'पावकारी' पापकारिणः-माणातिपातकारकाः जीवाः 'अणताइ ' अनन्तानि 'दुक्खाइ' दुःखानि 'पावति ' प्राप्नुवन्ति । ' एसो सो' एप सः प्रत्यक्ष दृश्यमानः 'पाण वहस्स' माणवधस्य-आणातिपातस्य 'फलविवागो' फलविपाका परिणामः भवति ।
अब उपसहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं-' एव णरग तिरिक्ख जोणि ' इत्यादि।
टीकार्थ-(एव) इस उक्त प्रकार से जो (णरग) नरक मे, वहा से मनुष्यलोक में आने पर (तिरिक्खजोणिं) तिर्यश्च योनि मे एवं (कुमागुसत्त) कुन्ज, वामन आदि रूप से विकृत अगोपांगवाली मनुष्ययोनिमें (हिंडमाणा) भ्रमण करते हुए (पावकारी) प्राणातिपातरूप पाप को करने वाले जीव (अणताइ दुक्खाइ) अनत दुःखों को (पावे ति) पाते हैं । ( एसो सो) प्रत्यक्ष में दृष्टिभूत बना हुओ यह (पाणवहस्स) प्राण वधरूप हिसा का ( फलविवागो) परिणाम है। प्राणवध का यह (फलहवे 6५स ९२ ४२ता सूत्रा२ ४ छ-" एव णरग तिरिक्सजोणि" ध्यान
साथ---"एव " राहत प्रारे “णरग" न२७भा, त्याथी भनुष्यसमा भापता “तिरिक्सजोणि " तिर्थयानिमा भने “कुमाणुसत्त" ५०४, वामन माहि ३ विकृत भगोपागाणी मनुष्य योनिमा " हिंडमाणा" अभए उरता " पावकारी" प्रातिपात३५ ५५ ४२ना२ ७॥ “ अणताइ दुक्साइ" सनत रोपावे ति" लागवे छ "एसो सो" प्रत्यक्ष दृष्टिगाय२ यतु "पाणव वहस्स" प्रा५३५ डिसानु " फलविवागो" ते परिणाम के प्रावधन मा