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प्रश्नण्याकरण शरीर सादिक सनिधनम् , शरीरम् आदिसहितम् उत्पत्तिमचात् , सनिधन-सकिनाशम् अन्तवनात् , ' इह भवे' अस्मिन् भये प्रत्यक्ष जन्म, तस्मात् 'एगे भवे' एक एव भवजन्म नान्यो लोकः, 'तस्स पिप्पणासमि' तस्य विपणागे सति तस्य शरीरस्य विनाशे सति ' सब्यनासोत्ति' सर्वनाशइति नाऽन्माऽनशिप्पते नाऽ पि च शुभाशुभरूपंफर्म । एउक्तरीत्या ' जपति ' जल्पन्ति कथयन्ति तज्जीवतच्छरीरवादिनः । नास्तिकादारभ्य तन्नीपतच्छरीरवादिपर्यन्ताः सर्वे 'मुसा वाई' मृपारादिनः सन्ति ॥ १०४ ॥ पुनरप्याह-वम्हा' इत्यादि।
मूलम्-तम्हा दाणवयपोसहाणं तवसंजमवंभचेरकल्लाणमाईयाण नस्थिफल, नवि च पाणवहे अलियवयणं न चेव चोरककरणं परदारसेवण वा सपरिग्गहपावकम्मकरणं पि शरीर को ही जो जीव मानने वाले हैं उनका ऐसा कहना है कि यह उत्पत्तिमान होने से सादि है और अन्तवाला होने से विनाशसहित है। (इहभवे एगे भवे ) इस भव मे जो इसका जन्म है वही इसका भव है, इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा इसका भव-जन्म नहीं है, क्यों कि (तस्स विप्पणासम्मि सन्चणासोत्ति) जय इस शरीर का विनाश हो जाता है तब इस जीच का सर्वनाश हो जाता है फिर इसका अस्तित्व ही नहीं रहता है, शुभ और अशुभ कर्म कुछ भी नहीं रहते हैं। (एव) इस तरह नास्तिक वादी से लेकर शरीर को ही जीव मानने वाले ये सब ही (मुसावाई ) मृषावादी (जपति ) कहते है । अर्थात् ये सब मृपावादी हैं । सू-४॥ જીવ માનનારા છે તેમનુ એવુ કહેવુ છે કે તે ઉત્પત્તિવાળુ હેવાથી સાદિ (सिडितनु) छ भने अन्तवाणु डापाथी विना युत्त (सान्त)छे " इह भवे एगे भवे " मा भन्भमा २ तेना भछ, ते ४ तनो ભવ છે, તે ઉપરાંત બીજે કઈ પણ તેનો ભવ—જન્મ નથી, કારણ કે " तस्स विप्पणासम्मि सव्वणासोत्ति" न्यारे . ! नाश थाय छत्यारे આ જીવનો પણ સર્વનાશ થઈ જાય છે–પછી તેનું અસ્તિત્વ જ રહેતું નથી,
ભ અને અશુભ કર્મ જેવુ કઈ પણ રહેતુ નથી “ga” આ રીતે નાસ્તિક पाथीभाई शरीरने माननार ते अधाने “मुसावाई" भृषावाही "जपति" छे मेटले त मधा असत्य वहनार छे ॥ २-४॥