________________
१६८
प्रश्नध्याकरणसूत्र म्पराऽनुगत सम्परज्ञानाभावात् , दुरन्त-रिपाकदारणत्वात् 'विश्य ' द्वितीयम् 'अधम्मदार' अधर्मद्वार 'फित्तिय कीर्तित कथितम् ।। म. १॥
एतेन यादृश मृपापादस्वरूपमस्ति तत्मथमान्तद्वारे प्रोक्तम् । साम्प यन्नामे 'ति द्वितीयान्तरे तन्नामान्याह-'तस्स' इत्यादिना
__ मूलम्--तस्स य णामाणि गोणाणि हंति तीसं त जहाअलियं १, सढं २, अणज्जं ३, मायामोसो ४, असंतकं ५, कूडकवडमवत्थुग च ६, निरत्थयमवत्थयंच७, विदेसगरहणिज्ज ८, अणुज्जुक ९, ककणा य १०, वचणा य११, मिच्छापच्छाकड च १२, साइ १३, उस्सुत्त १४, उक्कूल च १५, अदृ १६, अन्भ क्खाणं च १७, किब्बिस १८, वलयं १९, गहण च २० मम्मणं च २१, नूम २२, नियई २३, अप्पच्चओ २४, असमओ २५, असच्चसघत्तण २५, विवक्खो २७, उवहियं २८, उवहि असुद्ध २९, अवलोवोत्ति ३०, विइयस्स इमाणि एवमाइयाणि नामधेज्जाणि होति तीस सावज्जस्स अलियस्स क्यजोगस्त अणेगाइ ॥ सू २॥ हुए मिथ्यात्व, अविरति के प्रवाह का विच्छेद नहीं होता है। (अणुगय) सम्यग्ज्ञानका अभाव होने से यह जीव के साथ भवपरम्परानुगत होता है। (दुरत ) विपाक इसका बहुत ही अधिक दारुण होता है इसलिये यह जीव के लिये दुरन्त कहा गया है। इस तरह से (बिइय) इस दितीय अधर्म द्वार का (कित्तिय ) सूत्रकार ने तीर्थकर परपरा के वर्णन अनुसार वर्णन किया है ॥ १॥ હિોવાને કારણે અનાદિ કાળથી લાગેલ મિથ્યાત્વ અવિરતિ આદિને પ્રવાહ तटत नथी “ अणुगय" सभ्य ज्ञाननी समाव पाथी त नी साथ स१५२ ५२रानुगत हाय छे “दुरत" तेना विा “परिणाम" धो! १२ हाय छ, तथा त ने भाट दुरन्त वायु छ मा शत “ बिइय " मा भी अभानु 'कित्तिय " सूत्रारे ती ४२ ५२ ५। रेस वन प्रभा શેનું વર્ણન કર્યું છે સુ-૧ |